लाओ लुई कोस्सुथ
लाओ लुई कोस्सुथ
| |
पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 192 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | कैलाश नाथ सिंह |
लाओ लुई कोस्सुथ (1802-1894 ई.) हंगरी के एक राजनेता। हंगरी निवासी एक सामान्य स्लोवाक परिवार में मोनोक (ज़ेम्प्लिन) नामक स्थान में 19 सितंबर 1803 ई. को जन्म। उनके पिता वकील थे और उन्हीं के साथ उन्होंने वकालत आरंभ की। बाद में उन्हें राष्ट्रीय संसद में राउंट हुन्यडी ने अपना सहायक बनाया और उन्होंने उनके साथ 1825 से 1832 ई. में कार्य किया। सहायक के रूप में संसद् में उन्हें किसी प्रकार का मत देने का अधिकार न था। अत: वे अपने विचार अपने स्वामी के सम्मुख पत्र रूप में प्रस्तुत करते रहे और हाथ से लिखकर वे पत्र उदार विचार वाले सदस्यों में वितरित किए जाने लगे उस पत्र ने शीघ्र ही एक व्यवस्थित संसदीय पत्रिका का रूप धारण कर लया और वे उसके संपादक हो गए। इस पत्र के वितरण पर प्रतिबंध लगाने के अनेक प्रयास हुए पर कोस्सुथ की ख्याति और प्रभाव बढ़ता ही गया। जब 1836 ई0 में संसद भंग कर दी गई तो काउंटी सभाओं में होनेवाले वादविवादों को पत्र रूप में प्रस्तुत कर उन्होंने अपना आंदोलन जारी रखा। मई 1837 में वे राजद्रोह के अपराध में गिरफ्तार कर लिए गए। एक वर्ष तक वे ओफेन के कारागार में बंद रहे तदनंतर उन्हें 4 वर्ष की सजा हुई।
उनकी गिरफ्तारी के विरु द्ध जोरदार आंदोलन उभर उठा और 1839 में जो संसद बनी उसने उन्हें तथा अन्य राजनीतिक कैदियों की रिहाई के आंदोलन का समर्थन किया और प्रत्येक सरकारी प्रस्तावों को पारित करने से इंकार कर दिया। पहले तो सरकार अपने निश्चय में दृढ़ रही पर जब 1840 में युद्ध का खतरा दिखाई पड़ा तो वह झुकी और कोस्सुथ रिहा कर दिए गए। इस प्रकार वे एक लोकप्रिय नेता के रूप में जनता के सामने आए।
जनवरी 1841 में उन्होंने अपने दल के एक नए पत्र पेस्टी हिरलैप के संपादन का भार ग्रहण किया और इसमें उन्हें अभूतपूर्व सफलता मिली। अपने इस नवीन पत्र द्वारा वे हंगरी की स्वतंत्रता का प्रतिपादन करते रहे। उन्हें अन्य उदारवादी नेताओं की तरह कुछ सुधारमात्र से संतोष न था। अत: सरकार इस बात के लिये प्रयत्नशील हुई कि उक्त पत्र से उनका संबंध टूट जाए और वह 1844 ई. में इस कार्य में सफल भी हो गई। तब उसने स्वयं अपना पत्र निकालने का प्रयास किया। सरकार ने उसे एक अच्छा पद प्रदान करने का लालच दिया पर उसने उसे ठुकरा दिया और तीन वर्ष तक वह निरवलंब बना रहा। वह इस बीच निरंतर हंगरी की राजनीतिक और व्यावसायिक स्वतंत्रता के लिये आंदोलन करता रहा।
1847 ई. में वह बुडापेस्ट से संसद् का सदस्य चुना गया और उसने उग्र उदारवादियों का नेतृत्व ग्रहण किया। उसकी प्रेरणा से ही सम्राट् से राष्ट्रीय सरकार की स्थापना तथा मंत्रियों को पार्लियामेंट के प्रति उत्तरदायी बनाने की माँगे प्रस्तुत की गईं। कोस्सुथ के अनुयायियों ने अल्प समय में ही हंगरी में सामाजिक और राजनीतिक जीवन में परिवर्तन कर दिए। किंतु पार्लियामेंट का शासन, प्रेस और धर्म के विषय में स्वतंत्रता आदि उदारवादी विचारों की प्राप्ति से ही कोस्सुथ संतुष्ट होनेवाला न था।
कोस्सुथ देश के मेग्यारीकरण का पक्षपाती था, वह स्लाव जाति से मेग्यार जाति को उच्च समझता था। इस प्रकार राष्ट्रप्रेम की ज्वाला हंगरी में प्रज्वलित हुई। और जब 1848 ई. में पेरिस और विएना में राज्यक्रांति आरंभ हुई तो उससे प्रेरित होकर हंगरी में भी क्रांति की ज्वाला धधक उठी। किंतु देश के भीतर उभर रही जातीयता के कारण उसने गृहयुद्ध का रूप धारण कर लिया। मेग्यार लोगों की स्थिति खराब हो गई। एक ओर स्लावों और मेग्यारों में युद्ध आरंभ हुआ, दूसरी ओर आस्ट्रिया से।
आरंभ में कोस्सुथ की विजय हुई। उसने अप्रैल, 1848 में हंगरी को स्वाधीन घोषित करते हुए हेप्सबर्ग राजवंश को सिंहासन से उतार दिया और हंगरी में जनतंत्र स्थापित किया तथा स्वयं गवर्नर बना। हकदार राजवंश ही राज कर सकता है, उसकी यह चुनौती थी। तभी दुखी निरकुंश शासकों को सहायता देना दैवी कर्तव्य समझनेवाला रूस का जार निकोलस (प्रथम), जो प्रगतिशील आंदोलन का कट्टर शत्रु था, कारपेथियन पर्वत लाँघता हुआ हंगरी में घुस पड़ा। हंगरी की सेना ने रूसियों के सामने आत्मसमर्पण किया और हंगरी की राज्यक्रांति समाप्त हो गई। फलत: 11 अगस्त को कोस्सुथ को त्यागपत्र देकर तुर्की की सीमा में शरण लेनी पड़ी। उसके बाद वह फ्रांस, इंग्लैंड और अमरीका में घूमता फिरा। सभी देशों ने इसका स्वागत किया। 20 मार्च, 1894 में उसकी मृत्यु टूरिन में हुई।[१]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शुभदा तेलंग; परमेश्वरीलाल गुप्त