लूदोविको आरिओस्तो
लूदोविको आरिओस्तो
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 422 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | डॉ. रामसिंह तोमर |
आरिओस्तो, लूदोविको[१] पुनर्जागरणकाल के प्रसिद्ध इतालीय वीरकाव्य ओरलांदो फूरिओसो के रचयिता लूदोविको आरिओस्तो का जन्म 1474 में रेज्जा एमीलिया में एक संभ्रांत परिवार में हुआ। विद्यार्थी जीवन में साहित्य में उनकी बड़ी रुचि थी, किंतु पिता की मृत्यु के पश्चात् उन्हें अपने छोटे भाई बहनों की देखरेख तथा संपत्ति संभालने का भार लेना पड़ा और आर्थिक आवश्यकता के कारण नौकरी करनी पड़ी। वह कार्डिनल इप्तोलतो द ऐस्ते के यहाँ 1503 में पहुँचे और 15 वर्ष तक उनके साथ कार्य किया। इसी कार्यालय में आरिओस्तो पोप जूलियो द्वितीय और लेओने 10वें के यहाँ कार्डिनल के राजदूत होकर गए। हंगरी में कार्डिनल इप्पोलीतो के साथ जाना उन्होंने स्वीकार नहीं किया और सन् 1517 में उनकी नौकरी छूट गई। इसके बाद ड्यूक आल्फोंसो के यहाँ नौकरी की जिन्होंने आरिओस्तो को 1522 में गाफान्याना (तास्काना) में अपना राजदूत बनाकर भेजा। आरिओस्तो को यह कार्य भी पसंद नहीं था, वह स्वतंत्र रहकर अध्ययन करना चाहते थे। उन्होंने योग्यतापूर्वक कार्य किया, किंतु उनके कार्य की उचित सराहना नहीं की गई और 1525 में वह फेर्राना लौट आए। यहाँ उन्होंने एक छोटा घर और खेत खरीदा और शांतिपूर्वक अपना जीवन यहीं बिताया, अपनी कृतियों की रचना की और यहीं 1533 में स्वर्गवासी हुए।
आरिओस्तो ने प्रारंभ में कुछ कविताएं लातीनी में तथा कुछ लातीनी अपभ्रंश में लिखीं। इसके अतिरिक्त सात व्यंगकविताएं तथा पाँच कमेडियाँ (सुखांत नाट्यकृतियाँ लिखीं। पहले पहल इतालीय साहित्य में इस प्रकार की नाट्यकृतियां लिखने का श्रेय आरिओस्तो को ही है। आरिओस्तो की सर्वश्रेष्ठ कृति है 'ओरलांदो फूरिओसो'। पुनर्जागरणकाल की विशेषताओं से युक्त इतालीय साहित्य की यह सर्वोत्तम काव्यकृतियों में से एक है। इस कृति को लिखने की प्रेरणा आरिओस्तो को बोइआर्दो की असमाप्त कृति ओरलांदों इन्नामोरातो से से मिली। जहाँ बोइआर्दो की कथा रह गई थी, वहीं से आरिस्तो ने अपनी कृति आरंभ की है। कथा का निर्वाह, पात्रों का चित्रण, रस का परिपाक, सभी दृष्टियों से यह बहुत सफल रचना है। आंजेलिका के लिए आरलांदों का प्रेम, पेरिस के निकट ईसाइयों तथा सारासेनों में युद्ध और रुज्जेरों तथा ब्रादामांते का प्रेम इस कृति की प्रधान कथाएँ हैं। पहली घटना का अच्छा विस्तार किया गया है और उत्कर्षपर कथा वहाँ पहुँचती है जहाँ ओरलांदो प्रेम में पागल हो जाता है। इन तीन प्रधान घटनाओं से संबंधित कृति में और भी छोटी मोटी घटनाएँ कवि ने ग्रथित की हैं। कृति की वस्तु पुरानी कथाओं, प्राचीन काव्यकृतियों तथा लोककथाओं से ली गई है। कृति के प्रधान भाव प्रेम, सौंदर्य और श्रृंगारपरक उत्साह हैं। कवि के जीवनकाल में ही यह कृति लोकप्रिय हो गई थी। फ्रांसीसी में इसका अनुवाद गद्य में 1543 तथा पद्य में 1555 में हो गया था; अंग्रेजी में 1591 में और स्पैनिश में 1549 में हुआ। कृति पर अनेक टीकाएं लिखी गईं और वह चित्रों से सज्जित की गई। 16वं सदी से पूरे यूरोप में ओरलांदों फूरिओसो प्रसिद्ध हो गया था। दांते की कमेडी के पश्चात् ओरलांदों की कृति कदाचित् सबसे अधिक लोकप्रिय रही है।[२]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1474-1533
- ↑ सं.ग्रं.-जू कार्दूच्ची: ला जोवेंतू दी लु.आ.ए.ला. पोइसिया लातीना ओपेरे ग्रंथावली, भाग 15; लीरिका: संपादक जू. फातीनी, बारी, 1924; लेरीमे: संपा.जू. फातीनी, तूखि, 1934; सतीरे: संपा. जू तंबारा, सीवोरनो, 1903; कमेदिए: संपा.एम. कातालानो, बोलोन, 1933 तथा 1940; ओरलांदों फरिओसो, संप. देबेनेदेत्ती, वारी, 1928; कोमे लावोरावा: ल.आ.जी. कोंतीनी, फ्लोरेंस, 1939; आ. पर इतालीय में अनेक ग्रंथ हैं: जू. पेत्रोनियो, नेपल्स, 1934; ना. सापेन्यो, मिलान, 1940; बिन्नी, फ्लोरेंस, 1942; फ्रांचेस्को दे सांचेस्को दे सांक्रीस, स्तोरियाद, लेत्तेरात्तूरा, अध्याय 13 इत्यादि।