श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 10 श्लोक 22-33
एकादश स्कन्ध: दशमोऽध्यायः (10)
यदि यज्ञ-यागादी धर्म बिना किसी विघ्न के पूरा हो जाय तो उसके द्वारा जो स्वर्गादि लोक मिलते हैं, उनकी प्राप्ति का प्रकार मैं बतलाता हूँ, सुनो । यज्ञ करने वाला पुरुष यज्ञों के द्वारा देवताओं की आराधना करके स्वर्ग में जाता है और वहाँ अपने पुण्यकर्मों के द्वारा उपार्जित दिव्य भोगों को देवताओं के समान भोगता है । उसे उसके पुण्यों के अनुसार एक चमकीला विमान मिलता है और वह उस पर सवार होकर सुर-सुन्दरियों के साथ विहार करता है। गन्धर्वगण उसके गुणों का गान करते हैं और उसके रूप-लावण्य को देखकर दूसरों का मन लुभा जाता है । उसका विमान वह जहाँ ले जाना चाहता है, वही चला जाता है और उसकी घंटियाँ घनघनाकर दिशाओं को गुंजारित करती हैं। वह अप्सराओं के साथ नन्दनवन आदि देवताओं की विहार-स्थलियों में क्रीड़ाएँ करते-करते इतना वेसुध हो जाता है कि उसे इस बात का पता ही नहीं चलता कि अब मेरे पुण्य समाप्त हो जायँगे और मैं यहाँ से ढकेल दिया जाऊँगा । जब तक उसके पुण्य शेष रहते हैं, तब तक वह स्वर्ग में चैन की वंशी बजाता रहता है; परन्तु पुण्य क्षीण होते ही इच्छा न रहने पर भी उसे नीचे गिरना पड़ता है, क्योंकि काल की चाल ही ऐसी है । यदि कोई मनुष्य दुष्टों की संगती में पड़कर अधर्म-परायण हो जाय, अपनी इन्द्रियों के वश में होकर मनमानी करने लगे, लोभवश दाने-दाने में कृपणता करने लगे, लम्पट हो जाय अथवा प्राणियों को सताने लगे और विधि-विरुद्ध पशुओं की बलि देकर भूत और प्रेतों की उपासना में लग जाय, तब तो वह पशुओं से भी गया-बीता हो जाता है और अवश्य ही नरक में जाता है। उसे अन्त में घोर अन्धकार, स्वार्थ और परमार्थ से रहित अज्ञान में ही भटकना पड़ता है । जितने भी सकाम और बहिर्मुख करने वाले कर्म हैं, उनका फल दुःख ही है। जो जीव शरीर में अहंता-ममता करके उन्हीं में लग जाता है, उसे बार-बार जन्म-पर-जन्म और मृत्यु-पर-मृत्यु प्राप्त होती रहती है। ऐसी स्थिति में मृत्युधर्मा जीव को क्या सुख हो सकता है ?
सारे लोक और लोकपालों की आयु भी केवल एक कल्प है, इसलिये मुझसे भयभीत रहते हैं। औरों की बात ही क्या, स्वयं ब्रम्हा भी मुझसे भयभीत रहते हैं; क्योंकि उनकी आयु भी काल से सीमित—केवल दो परार्द्ध है । सत्व, रज और तम—ये तीनों गुण इन्द्रियों को उनके कर्मों में प्रेरित करते हैं और इन्द्रियाँ कर्म करती हैं। जीव अज्ञानवश सत्व, रज आदि गुणों और इन्द्रियों को अपना स्वरुप मान बैठता है और उनके किये हुए कर्मों का फल सुख-दुःख भोगने लगता है । जब तक गुणों की विषमता है अर्थात् शरीरादि में मैं और मेरे पन का अभिमान है; तभी तक आत्मा के एकत्व की अनुभूति नहीं होती—वह अनेक जान पड़ता है; और जब तक आत्मा की अनेकता है, तब तक तो उन्हें काल अथवा कर्म किसी के अधीन रहना ही पड़ेगा । जब तक परतन्त्रता है, तब तक ईश्वर से भय बना ही रहता है। जो मैं ओर मेरे पन के भाव से ग्रस्त रहकर आत्मा की अनेकता, परतन्त्रता आदि मानते हैं तो वैराग्य न ग्रहण करके बहिर्मुख करने वाले कर्मों का ही सेवन करते रहते हैं, उन्हें शोक और मोह की प्राप्ति होती है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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