श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 12 श्लोक 22-24
एकादश स्कन्ध: द्वादशोऽध्यायः (12)
इस संसार वृक्ष के दो बीज हैं—पाप और पुण्य। असंख्य वासनाएँ जड़ें हैं और तीन गुण तने हैं। पाँच भूत इसकी मोटी-मोटी प्रधान शाखाएँ हैं और शब्दादि पाँच विषय रस हैं, ग्यारह इन्द्रियाँ शाखा हैं तथा जीव और ईश्वर—दो पक्षी इसमें घोंसला बनाकर निवास करते हैं। इस वृक्ष में वात, पित्त और कफ रूप तीन तरह की छाल है। इसमें दो तरह के फल लगते हैं—सुख और दुःख। यह विशाल वृक्ष सूर्यमण्डल तक फैला हुआ है (इस सूर्यमण्डल का भेदन कर जाने वाले मुक्त पुरुष फिर संसार-चक्र में नहीं पड़ते) । जो गृहस्थ शब्द-रूप-रस आदि विषयों में फँसे हुए हैं, वे कामना से भरे हुए होने के कारण गीध के समान हैं। वे इस वृक्ष का दुःख रूप फल भोगते हैं, क्योंकि वे अनेक प्रकार के कर्मों के बन्धन में फँसे रहते हैं। जो अरण्य वासी परमहंस विषयों से विरक्त हैं, वे इस वृक्ष में राजहंस के समान हैं और वे इसका सुख रूप भोगते हैं। प्रिय उद्धव! वास्तव में मैं एक ही हूँ। यह मेरा जो अनेकों प्रकार का रूप है, वह तो केवल मायामय है। जो इस बात को गुरुओं के द्वारा समझ लेता है, वही वास्तव में समस्त वेदों का रहस्य जानता है । अतः उद्धव! तुम इस प्रकार गुरुदेव की उपासना रूप अनन्य भक्ति के द्वारा अपने ज्ञान की कुल्हाड़ी को तीखी कर लो और उसके द्वारा धैर्य एवं सावधानी से जीव भाव को काट डालो। फिर परमात्मा स्वरुप होकर उस वृत्ति रूप अस्त्रों को भी छोड़ दो और अपने अखण्ड स्वरुप में ही स्थित हो रहो[१]।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ईश्वर अपनी माया के द्वारा प्रपंच रूप से प्रतीत हो रहा है। इस प्रपंच के अध्यास के कारण ही जीवों को अनादि अविद्या से कर्तापन आदि की भ्रान्ति होती है। फिर ‘यह करो, यह मत करो’ इस प्रकार के विधि-निषेध का अधिकार होता है। तब ‘अन्तःकरण शुद्धि के लिये कर्म करो’—यह बात कही जाती है। जब अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है, तब कर्मसम्बन्धी दुराग्रह मिटाने के लिये यह बात कहीं जाती है कि भक्ति में विक्षेप डालने वाले कर्मों के प्रति आदर भाव छोड़कर दृढ़ विश्वास से भजन करो। तत्वज्ञान हो जाने पर कुछ भी कर्तव्य शेष नहीं रह जाता। यही इस प्रसंग का अभिप्राय है।
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