श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 28 श्लोक 8-17
एकादश स्कन्ध : अष्टाविंशोऽध्यायः (28)
उद्धवजी! तुमसे मैंने ज्ञान और विज्ञान की उत्तम स्थिति का वर्णन किया है। जो पुरुष मेरे इन वचनों का रहस्य जान लेता है वह न तो किसी की प्रशंसा करता है और न निन्दा। वह जगत् में सूर्य के समान समभाव से विचरता रहता है । प्रत्यक्ष, अनुमान, शास्त्र और आत्मानुभूति आदि सभी प्रमाणों से यह सिद्ध है कि यह जगत् उत्पत्ति-विनाशशील होने के कारण अनित्य एवं असत्य है। यह बात जानकर जगत् में असंग भाव से विचरना चाहिये । उद्धवजी! ने पूछा—भगवन्! आत्मा है द्रष्टा और देह है दृश्य। आत्मा स्वयं प्रकाश है और देह है जड़। ऐसी स्थिति में जन्म-मृत्यु रूप संसार न शरीर को हो सकता है और न आत्मा को। परन्तु इसका होना भी उपलब्ध होता है। तब यह होता किसे है ? आत्मा तो अविनाशी, प्राकृत-अप्राकृत गुणों से रहित, शुद्ध, स्वयं प्रकाश और सभी प्रकार्र के आवरणों से रहित है; तथा अथवा विनाशी, सगुण, अशुद्ध, प्रकाश्य और आवृत है। आत्मा अग्नि के समान प्रकाशमान है तो शरीर काठ कि तरह अचेतन। फिर यह जन्म-मृत्यु रूप संसार है किसे ? भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—वस्तुतः प्रिय उद्धव! संसार का अस्तित्व नहीं है तथापि जब तक देह, इन्द्रिय और प्राणों के साथ आत्मा कि सम्बन्ध-भ्रान्ति है तब तक अविवेकी पुरुष को वह सत्य-सा स्फुरित होता है । जैसे स्वप्न में अनेकों विपत्तियाँ आती हैं पर वास्तव में वे हैं नहीं, फिर भी स्वप्न टूटने तक उनका अस्तित्व नहीं मिटता, वैसे ही संसार के न होने पर भी जो उसमें प्रतीत होने वाले विषयों का चिन्तन करते रहते हैं, उनके जन्म-मृत्यु रूप संसार की निवृत्ति नहीं होती । जब मनुष्य स्वप्न देखता रहता है, तब नींद टूटने के पहले उसे बड़ी-बड़ी विपत्तियों का सामना करना पड़ता है; परन्तु जब उसकी नन्द टूट जाती है, वह जग पड़ता है, तब न तो स्वप्न की विपत्तियाँ रहती हैं और न उनके कारण होने वाले मोह आदि विकार । उद्धवजी! अहंकार ही शोक, हर्ष, भय, क्रोध, लोभ, मोह, स्पृहा और जन्म-मृत्यु का शिकार बनता है। आत्मा से तो इनका कोई सम्बन्ध ही नहीं है । उद्धवजी! देह, इन्द्रिय, प्राण, और मन में स्थित आत्मा ही जब उनका अभिमान कर बैठता है—उन्हें अपना स्वरुप मान लेता है—तब उसका नाम ‘जीव’ हो जाता है। उस सूक्ष्मातिसूक्ष्म आत्मा की मूर्ति है—गुण और कर्मों का बना हुआ लिंग शरीर। उसे ही कहीं सूत्रात्मा कहा जाता है और कहीं महतत्व। उसके और भी बहुत-से नाम हैं। वही कालरूप परमेश्वर के अधीन होकर जन्म-मृत्यु रूप संसार में इधर-उधर भटकता रहता है । वास्तव में मन, वाणी, प्राण और शरीर अहंकार के ही कार्य हैं। यह है तो निर्मूल, परन्तु देवता, मनुष्य आदि अनेक रूपों में इसी की प्रतीति होती है। मननशील पुरुष उपासना की शान पर चढ़ाकर ज्ञान की तलवार को अत्यन्त तीखी बना लेता है और उसके द्वारा देहाभिमान का—अहंकार का मूलोच्छेद करके पृथ्वी में दिर्द्वंद होकर विचरता है। फिर उसमें किसी प्रकार की आशा-तृष्णा नहीं रहती ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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