श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 31 श्लोक 14-28
एकादश स्कन्ध: एकत्रिंशोऽध्यायः (31)
इधर दारुक भगवान श्रीकृष्ण के विरह से व्याकुल होकर द्वारका आया और वसुदेवजी तथा उग्रसेन के चरणों पर गिर-गिरकर उन्हें आँसुओं से भिगोने लगा । परीक्षित्! उसने अपने को सँभालकर यदुवंशियों के विनाश का पूरा-पूरा विवरण कह सुनाया। उसे सुनकर लोग बहुत ही दुःखी हुए और मारे शोक के मुर्च्छित हो गये । भगवान श्रीकृष्ण के वियोग के विह्वल होकर वे लोग सिर पीटते हुए वहाँ तुरंत पहुँचे, जहाँ उनके भाई-बन्धु निष्प्राण होकर पड़े हुए थे । देवकी, रोहिणी और वसुदेवजी अपने प्यारे पुत्र श्रीकृष्ण और बलराम को न देखकर शोक की पीड़ा से बेहोश हो गये । उन्होंने भगवदविरह से व्याकुल होकर वहीं अपने प्राण छोड़ दिये। स्त्रियों ने अपने-अपने पतियों के शव पहचानकर उन्हें ह्रदय से लगा लिया और उसके साथ चिता पर बैठकर भस्म हो गयीं । बलरामजी की पत्नियाँ उनके शरीर को, वसुदेवजी की पत्नियाँ उनके शव को और भगवान की पुत्र वधुएँ अपने पतियों की लाशों को लेकर अग्नि में प्रवेश कर गयीं। भगवान श्रीकृष्ण की रुक्मिणी आदि पटरानियाँ उनके ध्यान में मग्न होकर अग्नि में प्रविष्ट हो गयीं ।
परीक्षित्! अर्जुन अपने प्रियतम और सखा भगवान श्रीकृष्ण के विरह से पहले तो अत्यन्त व्याकुल हो गये; फिर उन्होंने उन्हीं की गीतोक्त सदुपदेशों का स्मरण करके अपने मन को सँभाला । यदुवंश के मृत व्यक्तियों में जिनको कोई पिण्ड देने वाला न था, उनका श्राद्ध अर्जुन ने क्रमशः विधिपूर्वक करवाया । महाराज! भगवान के न रहने पर समुद्र ने एकमात्र भगवान श्रीकृष्ण का निवासस्थान छोड़कर एक ही क्षण में सारी द्वारका डुबो दी । भगवान श्रीकृष्ण वहाँ वाब भी सदा-सर्वदा निवास करते हैं। वह स्थान स्मरण मात्र से ही सारे पाप-तापों का नाश करने वाला और सर्वमंगलों को भी मंगल बनाने वाला है । प्रिय परीक्षित्! पिण्डदान के अनन्तर बची-खुची स्त्रियों, बच्चों और बूढ़ों को लेकर अर्जुन इन्द्रप्रस्थ आये। वहाँ सबको यथायोग्य बसाकर अनिरुद्ध के पुत्र वज्र का राज्याभिषेक कर दिया । राजन्! तुम्हारे दादा युधिष्ठिर आदि पाण्डवों को अर्जुन से ही यह बात मालूम हुई कि यदुवंशियों का संहार हो गया है। तब उन्होंने अपने वंश धर तुम्हें राज्यपद अभिषिक्त करके हिमालय की वीर यात्रा की ।
मैंने तुम्हें देवताओं के भी आराध्यदेव भगवान श्रीकृष्ण की जन्म लीला और कर्म लीला सुनायी। जो मनुष्य श्रद्धा के साथ इसका कीर्तन करता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है । परीक्षित्! जो मनुष्य इस प्रकार भक्तभयहारी निखिल सौन्दर्य—माधुर्यनिधि श्रीकृष्णचन्द्र के अवतार-सम्बन्धी रुचिर पराक्रम और इस श्रीमद्भागवत महापुराण में तथा दूसरे पुराणों में वर्णित परमानन्दमयी बाल लीला, कैशोर लीला आदि का संकीर्तन करता है, वह परमहंस मुनीन्द्रों के अन्तिम प्राप्तव्य श्रीकृष्ण के चरणों में पराभक्ति प्राप्त करता है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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