श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 1-12

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एकादश स्कन्ध: सप्तमोऽध्यायः (7)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: सप्तमोऽध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

अवधूतोपाख्यान—पृथ्वी से लेकर कबूतर तक आठ गुरुओं की कथा

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—महाभाग्यवान्! उद्धव! तुमने मुझसे जो कुछ कहा है, मैं वही करना चाहता हूँ। ब्रम्हा, शंकर और इन्द्रादि लोकपाल भी अब यही चाहते हैं कि मैं उनके लोकों में होकर अपने धाम को चला जाऊँ । पृथ्वी पर देवताओं का जितना काम करना था, उसे मैं पूरा कर चुका। इसी काम के लिये ब्रम्हाजी की प्रार्थना से मैं बलरामजी के साथ अवतीर्ण हुआ था । अब यह यदुवंश, जो ब्राम्हणों के शाप से भस्म हो चुका है, पारस्परिक फूट और युद्ध से नष्ट हो जायगा। आज के सातवें दिन समुद्र इस पुरी-द्वारका को डुबो देगा । प्यारे उद्धव! जिस क्षण मैं मर्त्यलोक का परित्याग कर दूँगा, उसी क्षण इसके सारे मंगल नष्ट हो जायँगे और थोड़े ही दिनों में पृथ्वी पर कलियुग का बोलबाला हो जायगा । जब मैं इस पृथ्वी का त्याग कर दूँ तब तुम इस पर मत रहना; क्योंकि साधु उद्धव! कलियुग में अधिकांश लोगों की रूचि अधर्म में ही होगी । अब तुम अपने आत्मीय स्वजन और बन्धु-बान्धवों का स्नेह-सम्बन्ध छोड़ दो और अनन्य प्रेम से मुझमें अपना मन लगाकर समदृष्टि से पृथ्वी में स्वछन्द विचरण करो । इस जगत् में जो कुछ मन से सोचा जाता है, वाणी से कहा जाता है, नेत्रों से देखा जाता है और श्रवण आदि इन्द्रियों से अनुभव किया जाता है, वह सब नाशवान् है। सपने की तरह मन का विलास है। इसलिए मायामात्र है, मिथ्या है—ऐसा समझ लो । जिस पुरुष का मन अशान्त है, असंयत है, उसी को पागल की तरह अनेकों वस्तुएँ मालूम पड़ती हैं; वास्तव में यह चित्त का भ्रम ही है। नानात्व का भ्रम हो जाने पर ही ‘यह गुण है’ और ‘यह दोष’ इस प्रकार की कल्पना करनी पड़ती है। जिसकी बुद्धि में गुण और दोष का भेद बैठ गया है, दृढ़मूल हो गया है, उसी के लिये कर्म[१], अकर्म[२] आर विकर्मरूप[३] भेद का प्रतिपादन हुआ है । इसलिए उद्धव! तुम पहले अपनी समस्त इन्द्रियों को अपने वश में कर लो, उनकी बागडोर अपने हाथ में ले लो और केवल इन्द्रियों को ही नहीं, चित्त की समस्त वृत्तियों को भी रोक लो और फिर ऐसा अनुभव करो कि यह सारा आत्मा मुझ सर्वात्मा इन्द्रियातीत ब्रम्ह से एक है, अभिन्न है । जब वेदों के मुख्य तात्पर्य—निश्चयरूप ज्ञान और अनुभवरूप विज्ञान से भलीभाँति सम्पन्न होकर तुम अपने आत्मा के अनुभव में ही आनन्दमग्न रहोगे और सम्पूर्ण देवता आदि शरीरधारियों के आत्मा हो जाओगे। इसलिये किसी भी विघ्न से तुम पीडित नहीं हो सकोगे; क्योंकि उन विघ्नों और विघ्न करने वालों की आत्मा भी तुम्हीं होंगे । जो पुरुष गुण और दोष-बुद्धि से अतीत हो जाता है वह बालक के समान निषिद्ध कर्म से निवृत्त होता है, परन्तु दोष-बुद्धि से नहीं। वह विहित कर्म का अनुष्ठान भी करता है, परन्तु गुणबुद्धि से नहीं । जिसने श्रुतियों के तात्पर्य का यथार्थ ज्ञान ही नहीं प्राप्त कर लिया, बल्कि उनका साक्षात्कार भी कर लिया है और इस प्रकार जो अटल निश्चय से सम्पन्न हो गया है वह समस्त प्राणियों का हितैषी सुहृद होता है और उसकी वृत्तियाँ सर्वथा शान्त रहती हैं। वह समस्त प्रातीयमान विश्व को मेरा ही स्वरुप—आत्मस्वरुप देखता है; इसलिये उसे फिर कभी जन्म-मृत्यु के चक्कर में नहीं पड़ना पड़ता ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. विहित कर्म
  2. विहित कर्म का लोप
  3. निषिद्ध कर्म

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