श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 14 श्लोक 1-17

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तृतीय स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः (14)

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

दिति का गर्भधारण

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन्! प्रयोजनवश सूकर बने श्रीहरि की कथा को मैत्रेयजी के मुख से सुनकर भी भक्तिव्रतधारी विदुरजी की पूर्ण तृप्ति न हुई; अतः उन्होंने हाथ जोड़कर फिर पूछा।

विदुरजी ने कहा—मुनिवर! हमने यह बात आपके मुख से अभी सुनी है कि आदिदैत्य हिरण्याक्ष को भगवान् यज्ञमूर्ति ने ही मारा था। ब्रह्मन्! जिस समय भगवान् लीला से ही अपनी दाढ़ों पर रखकर पृथ्वी को जल में से निकाल रहे थे, उस समय उनसे दैत्यराज हिरण्याक्ष की मूठभेड़ किस कारण हुई ?

श्रीमैत्रेयजी ने कहा—विदुरजी! तुम्हारा प्रश्न बड़ा ही सुन्दर है; क्योंकि तुम श्रीहरि की अवतार कथा के विषय में ही पूछ रहे हो, जो मनुष्यों के मृत्युपाश का छेदन करने वाली है। देखो! उत्तानपाद का पुत्र ध्रुव बालकपन में श्रीनारदजी की सुनायी हुई हरिकथा के प्रभाव से ही मृत्यु के सिर पर पैर रखकर भगवान् के परमपद पर आरूढ़ हो गया था। पूर्वकाल में एक बार इसी वराह भगवान् और हिरण्याक्ष के युद्ध के विषय में देवताओं के प्रश्न करने पर करने पर देवदेव श्रीब्रम्हा जी ने उन्हें यह इतिहास सुनाया था और उसी के परम्परा से मैंने सुना है। विदुरजी! एक बार दक्ष की पुत्री दिति ने पुत्रप्राप्ति की इच्छा से कामातुर होकर सायंकाल के समय ही अपने पति मरीचिनन्दन कश्यपजी से प्रार्थना की। उस समय कश्यपजी खीर की आहुतियों द्वारा अग्निजिन्ह भगवान् यज्ञपति की आराधना कर सूर्यास्त का समय जान अग्निशाला में ध्यानस्थ होकर बैठे थे।

दिति ने कहा—विद्वन्! मतवाला हाथी जैसे केले के वृक्ष को मसल डालता है, उसी प्रकार यह प्रसिद्ध धनुर्धर कामदेव मुझ अबला पर जोर जताकर आपके लिये मुझे बेचैन कर रहा है। अपनी पुत्रवती सौतों की सुख-समृद्धि को देखकर मैं ईर्ष्या की आग से जलील जाती हूँ। अतः आप मुझ पर कृपा कीजिये, आपका कल्याण हो। जिनके गर्भ से आप-जैसा पति पुत्ररूप से उत्पन्न होता है, वे ही स्त्रियाँ अपने पतियों से सम्मानिता समझी जाती हैं। उनका सुयश संसार में सर्वत्र फैल जाता । हमारे पिता प्रजापति दक्ष का अपनी पुत्रियों पर बड़ा स्नेह था। एक बार उन्होंने हम सबको अलग-अलग बुलाकर पूछा कि ‘तुम किसे अपना पति बनाना चाहती हो ?’ वे अपनी सन्तान की सब प्रकार की चिन्ता रखते थे। अतः हमारा भाव जानकर उन्होंने उनमें से हम तेरह पुत्रियों को, जो आपके गुण-स्वभाव के अनुरूप थीं, आपके साथ ब्याह दिया। अतः मंगलमूर्ते! कमलनयन! आप मेरी इच्छा पूर्ण कीजिये; क्योंकि हे महत्तम! आप-जैसे महापुरुषों के पास दीनजनों का आना निष्फल नहीं होता। विदुरजी! दिति कामदेव के वेग से अत्यन्त बेचैन और बेबस हो रही थी। उसने इसी प्रकार बहुत-सी बातें बनाते हुए दीन होकर कश्यपजी से प्रार्थना की, तब उन्होंने उसे सुमधुर वाणी से समझाते हुए कहा। ‘भीरु! तुम्हारी इच्छा के अनुसार मैं अभी-अभी तुम्हारा प्रिय अवश्य करूँगा। भला, जिसके द्वारा अर्थ, कर्म और काम—तीनों की सिद्धि होती है, अपनी ऐसी पत्नी की कामना कौन पूर्ण नहीं करेगा ? जिस जहाज पर चढ़कर मनुष्य महासागर को पार कर लेता है, उसी प्रकार ग्रहस्थाश्रमी दूसरे आश्रमों को आश्रय देता हुआ अपने आश्रम द्वारा स्वयं भी दुःखसमुद्र के पार हो जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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