श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 1 श्लोक 14-26

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तृतीय स्कन्ध: प्रथम अध्यायः (1)

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 14-26 का हिन्दी अनुवाद

विदुजी का ऐसा सुन्दर स्वभाव था कि साधुजन भी उसे प्राप्त करने की इच्छा करते थे। किंतु उनकी यह बात सुनते ही कर्ण, दुःशासन और शकुनि के सहित दुर्योधन के होठ अत्यन्त क्रोध से फड़कने लगे और उसने उनका तिरस्कार करते हुए कहा—‘अरे! इस कुटिल दासी पुत्र को यहाँ किसने बुलाया है ? यह जिनके टुकड़े खा-खाकर जीता है, उन्हीं के प्रतिकूल होकर शत्रु का काम बनाना चाहता है। इसके प्राण तो मत लो, परंतु इसे हमारे नगर से तुरन्त बाहर दो’। भाई के सामने ही कानों में बाण के समान लगने वाले इन अत्यन्त कठोर वचनों से मर्माहत होकर भी विदुरजी ने कुछ बुरा न माना और भगवान् की माया को प्रबल समझकर अपना धनुष राजद्वार पर रख वे हस्तिनापुर से चल दिये। कौरवों को विदुर-जैसे महात्मा बड़े पुण्य से प्राप्त हुए थे। वे हस्तिनापुर से चलकर पुण्य करने की इच्छा से भूमण्डल में तीर्थपाद भगवान् के क्षेत्रों में विचरने लगे, जहाँ श्रीहरि, ब्रम्हा, रूद्र, अनन्त आदि अनेकों मूर्तियों के रूप में विराजमान हैं। जहाँ-जहाँ भगवान् की प्रतिमाओं से सुशोभित तीर्थस्थान, नगर, पवित्र वन, पर्वत, निकुंज और निर्मल जल से भरे हुए नदी-सरोवर आदि थे, उन सभी स्थानों में वे अकेले ही विचरते रहे। वे अवधूत-वेष में स्वच्छन्दतापूर्वक पृथ्वी पर विचरते थे, जिससे आत्मीयजन उन्हें पहचान न सकें। वे शरीर को सजाते न थे, पवित्र और साधारण भोजन करते, शुद्धिवृत्ति से जीवन-निर्वाह करते, प्रत्येक तीर्थ में स्नान करते, जमीन पर सोते और भगवान् को प्रसन्न करने वाले व्रतों का पालन करते रहते थे। इस प्रकार भारतवर्ष में ही विचरते-विचरते जब तक वे प्रभास क्षेत्र में पहुँचे, तब तक भगवान् श्रीकृष्ण की सहायता से महाराज युधिष्ठिर पृथ्वी का एकच्छत्र अखण्ड राज्य करने लगे थे। वहाँ उन्होंने अपने कौरव बन्धुओं के विनाश का समाचार सुना, जो आपस की कलह के कारण परस्पर लड़-भिड़कर उसी प्रकार नष्ट हो गये थे, जैसे अपनी ही रगड़ से उत्पन्न हुई आग से बाँसों का सारा जंगल जलकर खाक हो जाता है। यह सुनकर वे शोक करते हुए चुपचाप सरस्वती के तीर पर आये। वहाँ उन्होंने त्रित, उशना, मनु, पृथु, अग्नि, असित, वायु, सुदास, गौ, गुह्य और श्राद्धदेव के नामों से प्रसिद्ध ग्यारह तीर्थों का सेवन किया। इनके सिवा पृथ्वी में ब्राम्हण और देवताओं के स्थापित किये हुए जो भगवान् विष्णु के और भी अनेकों मन्दिर थे, जिनके शिखरों पर भगवान् के प्रधान आयुध चक्र के चिन्ह थे और जिनके दर्शन मात्र से श्रीकृष्ण का स्मरण हो आता था, उनका भी सेवन किया। वहाँ से चलकर वे धन-धान्यपूर्ण सौराष्ट्र, सौवीर, मत्स्य और कुरुजांगल आदि देशों में होते हुए जब कुछ दिनों में यमुनातट पर पहुँचे, तब वहाँ उन्होंने परमभागवत उद्धवजी का दर्शन किया। वे भगवान् श्रीकृष्ण के प्रख्यात सेवक और अत्यन्त शान्त स्वभाव थे। वे पहले बृहस्पतिजी के शिष्य रह चुके थे। विदुरजी ने उन्हें देखकर प्रेम से गाढ़ आलिंगन किया और उनसे अपने आराध्य भगवान् श्रीकृष्ण और उनके आश्रित अपने स्वजनों का कुशल-समाचार पूछा।

विदुरजी कहने लगे—उद्धवजी! पुराण पुरुष बलरामजी और श्रीकृष्ण ने अपने ही नाभि कमल से उत्पन्न हुए ब्रम्हाजी की प्रार्थना से इस जगत् में अवतार लिया है। वे पृथ्वी का भार उतारकर सबको आनन्द देते हुए अब श्रीवसुदेवजी के घर कुशल से रह रहे हैं न ?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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