श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 1 श्लोक 40-45
तृतीय स्कन्ध: प्रथम अध्यायः (1)
अहो! बेचारी कुन्ती तो राजर्षिश्रेष्ठ पाण्डु के वियोग में मृतप्राय-सी होकर भी इन बालकों के लिये ही प्राण धारण किये हुए हैं। रथियों में श्रेष्ठ महाराज पाण्डु ऐसे अनुपम वीर थे कि उन्होंने केवल एक धनुष लेकर ही अकेले चारों दिशाओं को जीत लिया था। सौम्यस्वभाव उद्धवजी! मुझे तो अधःपतन की ओर जाने वाले उन धृतराष्ट्र के लिये बार-बार शोक होता है, जिन्होंने पाण्डवों के रूप में अपने परलोकवासी भाई पाण्डु से ही द्रोह किया तथ अपने पुत्रों की हाँ-में-हाँ मिलाकर अपने हितचिन्तक मुझको भी नगर से निकलवा दिया। किंतु भाई! मुझे इसका कुछ भी खेद अथवा आश्चर्य नहीं है। जगाद्विधाता भगवान् श्रीकृष्ण ही मनुष्यों की-सी लीलाएँ करके लोगों की मनोवृत्तियों को भ्रमित कर देते हैं। मैं तो उन्हीं की कृपा से उनकी महिमा को देखता हुआ दूसरों की दृष्टि से दूर रहकर सानन्द विचर रहा हूँ। यद्यपि कौरवों ने उनके बहुत-से अपराध किये, फिर भी भगवान् ने उनकी इसीलिये उपेक्षा कर दी थी कि वे उनके साथ उन दुष्ट राजाओं को भी मारकर अपने शरणागतों का दुःख दूर करना चाहते थे, जो धन, विद्या और जाति के मद से अंधे होकर कुमार्गगामी हो रहे थे और बार-बार अपनी सेनाओं से पृथ्वी को कंपा रहे थे। उद्धवजी! भगवान् श्रीकृष्ण जन्म और कर्म से रहित हैं, फिर भी दुष्टों का नाश करने के लिये और लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये उनके दिव्य जन्म-कर्म हुआ करते हैं। नहीं तो, भगवान् की तो बात ही क्या—दूसरे जो लोग गुणों से पार हो गये हैं, उनमें भी ऐसा कौन है, जो इस कर्माधीन देह के बन्धन में पड़ना चाहेगा। अतः मित्र! जिन्होंने अजन्मा होकर भी अपनी शरण में आये हुए समस्त लोकपाल और आज्ञाकारी भक्तों का प्रिय करने के लिये यदुकुल में जन्म लिया है, उन पवित्रकीर्ति श्रीहरि की बातें सुनाओ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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