श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 22 श्लोक 15-25
दशम स्कन्ध: दवाविंशोंऽध्यायः (22) (पूर्वार्ध)
॥ प्यारे श्यामसुन्दर! हम तुम्हारी दासी हैं। तुम तो धर्म का मर्म भलीभाँति जानते हो। हमें कष्ट मत दो। हमारे वस्त्र हमें दे दो; नहीं तो हम जाकर नन्दबाबा से कह देंगी’।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—कुमारियों! तुम्हारी मुसकान पवित्रता और प्रेम से भरी है। देखो, जब तुम अपने को मेरी दासी स्वीकार करती हो और मेरी आज्ञा का पालन करना चाहती हो तो यहाँ आकर अपने-अपने वस्त्र ले लो । परीक्षित्! वे कुमारियाँ ठण्ड से ठिठुर रहीं थीं, काँप रहीं थी। भगवान की ऐसी बात सुनकर वे अपने दोनों हाथों से गुप्त अंगों को छिपाकर यमुनाजी से बाहर निकलीं। उस समय ठंड उन्हें बहुत ही सता रही थी ।
उनके इस शुद्ध भाव ने बहुत ही प्रसन्न हुए। उनको अपने पास आयी देखकर उन्होंने गोपियों के वस्त्र अपने कंधे पर रख लिये और बड़ी प्रसन्नता से मुसकाते हुए बोले—‘अरी गोपियों! तुमने जो व्रत लिया था, उसे अच्छी तरह निभाया है—इसमें संदेह नहीं। परन्तु इस अवस्था में वस्त्रहीन होकर तुमने जल में स्नान किया है, इससे तो जल के अधिष्ठातृ देवता वरुण का तथा यमुनाजी का अपराध हुआ है। अतः अब इस दोष की शान्ति के लिये तुम अपने हाथ जोड़कर सर से लगाओ और उन्हें झुककर प्रणाम करो, तदनन्तर अपने-अपने वस्त्र ले जाओ । भगवान श्रीकृष्ण की बात सुनकर व्रजकुमारियों ने ऐसा ही समझा कि वास्तव में वस्त्रहीन होकर स्नान करने से हमारे व्रत में त्रुटि आ गयी। अतः उसकी निर्विघ्न पूर्ति के लिये उन्होंने समस्त कर्मों के साक्षी श्रीकृष्ण को नमस्कार किया। क्योंकि उन्हें करने से ही हमारी सारी त्रुटियाँ और अपराधों का मार्जन हो जाता है । जब यशोदानन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि सब-की-सब कुमारियाँ मेरी आज्ञा के अनुसार प्रणाम कर रही हैं, तब वे बहुत ही प्रसन्न हुए। उनके ह्रदय में करुणा उमड़ आयी और उन्होंने उनके वस्त्र दे दिये । प्रिय परीक्षित्! श्रीकृष्ण ने कुमारियों से छ्ल भरी बातें कीं, उनका लज्जा-संकोच छुड़ाया, हँसी की और उन्हें कठ-पुतलियों के समान नचाया; यहाँ तक कि उनके वस्त्र-तक हर लिये। फिर भी वे उनसे रुष्ट नहीं हुईं, उनकी इन चेष्टाओं को दोष नहीं माना, बल्कि अपने प्रियतम के संग से वे और भी प्रसन्न हुईं । परीक्षित्! गोपियों ने अपने-अपने वस्त्र पहल लिये। परन्तु श्रीकृष्ण ने उनके चित्त को इस प्रकार अपने वश में कर रखा था कि वे वहाँ से एक पग भी न चल सकी। अपने प्रियतम के समागम के लिये सजकर वे उन्हीं की ओर लजीली चितवन से निहारती रहीं ।
भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि उन कुमारियों ने उनके चरणकमलों में स्पर्श की कामना से ही व्रत धारण किया है और उनके जीवन का यही एकमात्र संकल्प है। तब गोपियों के प्रेम के अधीन होकर ऊखल-तक में बँध जाने वाले भगवान ने उनसे कहा—‘मेरी परम प्रेयसी कुमारियों! मैं तुम्हारा यह संकल्प जानता हूँ कि तुम मेरी पूजा करना चाहती हो। मैं तुम्हारी इस अभिलाषा का अनुमोदन करता हूँ, तुम्हारा यह संकल्प सत्य होगा। तुम मेरी पूजा कर सकोगी ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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