श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 23 श्लोक 24-33
दशम स्कन्ध: त्रयोविंशोऽध्यायः (23) (पूर्वार्ध)
प्रिय परीक्षित्! भगवान सबके ह्रदय की बात जानते हैं, सबकी बुद्धियों के साक्षी है। उन्होंने जब देखा कि ये ब्राम्हणपत्नियाँ अपने भाई-बन्धु और पति-पुत्रों के रोकने पर भी सब सगे-सम्बन्धियों और विषयों की आशा छोड़कर केवल मेरे दर्शन की लालसा से ही मेरे पास आयी हैं, तब उन्होंने उनसे कहा। उस समय उनके मुखारविन्द पर हास्य की तरंगे अठखेलियाँ कर रही थीं । भगवान ने कहा—‘महाभाग्यवती देवियों! तुम्हारा स्वागत है। आओ, बैठो। कहो, हम तुम्हारा क्या स्वागत करें ? तुम लोग हमारे दर्शन की इच्छा से यहाँ आयी हो, यह तुम्हारे-जैसे प्रेमपूर्ण ह्रदयवालों के योग्य ही है । इसमें सन्देह नहीं कि संसार में अपनी सच्ची भलाई को समझने वाले जितने भी बुद्धिमान पुरुष हैं, वे अपने प्रियतम के समान ही मुझसे प्रेम करते हैं और ऐसा प्रेम करते हैं जिसमें किसी प्रकार की कामना नहीं रहती—जिसमें किसी प्रकार का व्यवधान, संकोच, छिपावा, दुविधा या द्वैत नहीं होता । प्राण, बुद्धि, मन, शरीर, स्वजन, स्त्री, पुत्र और धन आदि संसार की सभी वस्तुएँ जिसके लिये और जिसकी सन्निधि से प्रिय लगती हैं—उस आत्मा से, परमात्मा से, मुझ श्रीकृष्ण से बढ़कर और कौन प्यारा हो सकता है । इसलिये तुम्हारा आना उचित ही है। मैं तुम्हारे प्रेम का अभिनन्दन करता हूँ। परन्तु अब तुम लोग मेरा दर्शन कर चुकीं। अब अपने यज्ञशाला में लौट जाओ। तुम्हारे पति ब्राम्हण गृहस्थ हैं। वे तुम्हारे साथ मिलकर ही अपना यज्ञ पूर्ण कर सकेंगे’।
ब्राम्हणपत्नियों ने कहा—अन्तर्यामी श्यामसुन्दर! आपकी यह बात निष्ठुरता से पूर्ण है। आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। श्रुतियाँ कहती हैं कि जो एक बार भगवान को प्राप्त हो जाता है, उसे फिर संसार में नहीं लौटना पड़ता। आप अपनी यह वेदवाणी सत्य कीजिये। हम अपने समस्त सगे-सम्बन्धियों की आज्ञा का उल्लंघन करके आपके चरणों में इसलिये आयीं हैं कि आपके चरणों से गिरी हुई तुलसी की माला अपने केशों में धारण करें । स्वामी! अब हमारे पति-पुत्र, माता-पिता, भाई-बन्धु और स्वजन-सम्बन्धी हमें स्वीकार नहीं करेंगे; फिर दूसरों की तल बात ही क्या है। वीरशिरोमणे! अब हम आपके चरणों में आ पड़ी हैं। हमें और किसी का सहारा नहीं है। इसलिये अब हमें दूसरों की शरण में न जाना पड़े, ऐसी व्यवस्था कीजिये ।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—देवियों! तुम्हारे पति-पुत्र, माता-पिता, भाई-बन्धु—कोई भी तुम्हारा तिरस्कार नहीं करेंगे। उनकी तो बात ही क्या, सारा संसार तुम्हारा सम्मान करेगा। इसका कारण है। अब तुम मेरी हो गयी हो, मुझसे युक्त हो गयी हो। देखो न, ये देवता मेरी बात का अनुमोदन कर रहे हैं । देवियों! इस संसार में मेरा अंग-संग ही मनुष्यों में मेरी प्रीति या अनुराग का कारण नहीं है। इसलिये तुम जाओ, अपना मन मुझमें लगा दो। तुम्हें बहुत शीघ्र मेरी प्राप्ति हो जायगी ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब भगवान ने इस प्रकार कहा, तब वे ब्राम्हणपत्नियाँ यज्ञशाला में लौट गयीं। उन ब्राम्हणों ने अपनी स्त्रियों में तनिक भी दोषदृष्टि नहीं की। उनके साथ मिलकर अपना यज्ञ पूरा किया ।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-