श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 24 श्लोक 31-38
दशम स्कन्ध: चतुर्विंशोऽध्यायः (24) (पूर्वार्ध)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! कालात्मा भगवान की इच्छा थी कि इन्द्र का घमण्ड चूर-चूर कर दें। नन्दबाबा आदि गोपों ने उनकी बात सुनकर बड़ी प्रसन्नता से स्वीकार कर ली । भगवान श्रीकृष्ण ने जिसे प्रकार का यज्ञ करने को कहा था, वैसा ही यज्ञ उन्होंने प्रारम्भ किया। पहले ब्राम्हणों से स्वस्तिवाचन कराकर उसी सामग्री से गिरिराज और ब्राम्हणों को सादर भेंटे दीं तथा गौओं को हरी-हरी घास खिलायीं। इसके बाद नन्दबाबा आदि गोपों ने गौओं को आगे करके गिरिराज की प्रदक्षिणा की । ब्राम्हणों का आशीर्वाद प्राप्त करके वे और गोपियाँ भलीभाँति श्रृंगार करके और बैलों से जुती गाड़ियों पर सवार होकर भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान करती हुई गिरिराज की परिक्रमा करने लगीं । भगवान श्रीकृष्ण गोपों को विश्वास दिलाने के लिये गिरिराज के ऊपर एक दूसरा विशाल शरीर धारण करके प्रकट हो गये, तथा ‘मैं गिरिराज हूँ’। इस प्रकार कहते हुए सारी सामग्री आरोगने लगे ।
भगवान श्रीकृष्ण ने अपने उस स्वरुप को दूसरे व्रजवासियों के साथ स्वयं भी प्रणाम किया और कहने लगे—‘देखो, कैसा आश्चर्य है! गिरिराज ने साक्षात् प्रकट होकर हम पर कृपा की है । ये चाहे जैसा रूप धारण कर सकते हैं। जो वनवासी जीव इनका निरादर करते हैं, उन्हें ये नष्ट कर डालते हैं। आओ, अपना और गौओं का कल्याण करने के लिये इन गिरिराज को हम नमस्कार करें’। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण की प्रेरणा से नन्दबाबा आदि बड़े-बड़े गोपों ने गिरिराज, गौ और ब्राम्हणों का विधिपूर्वक पूजन किया तथा फिर श्रीकृष्ण के साथ सब व्रज में लौट आये ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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