श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 29 श्लोक 26-33

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दशम स्कन्ध: एकोनत्रिंशोऽध्यायः (29) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनत्रिंशोऽध्यायः श्लोक 26-33 का हिन्दी अनुवाद

कुलीन स्त्रियों के लिये जार पुरुष की सेवा सब तरह से निन्दनीय ही है। इससे उनका परलोक बिगड़ता है, स्वर नहीं मिलता, इस लोक में अपयश होता है। यह कुकर्म स्वयं तो अत्यन्त तुच्छ, क्षणिक है ही; इसमें प्रत्यक्ष—वर्तमान में भी कष्ट-ही-कष्ट है। मोक्ष आदि की तो बात ही कौन करे, यह साक्षात् परम भय—नरक आदि का हेतु है । गोपियों! मेरी लीला और गुणों के श्रवण से, रूप के दर्शन से, उन सबके कीर्तन और ध्यान से मेरे प्प्रती जैसे अनन्य प्रेम की प्राप्ति होती है, वैसे प्रेम की प्राप्ति पास रहने से नहीं होती। इसलिये तुम लोग अभी अपने-अपने घर लौट जाओ । श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण का यह अप्रिय भाषण सुनकर गोपियाँ उदास, खिन्न हो गयीं। उनकी आशा टूट गयी। वे चिन्ता के अथाह एवं अपार समुद्र के में डूबने-उतराने लगीं । उनके बिम्बाफल (पके हुए कुँदरू) के समान लाल-लाल अधर शोक के कारण चलने वालीं लम्बी और गरम साँस से सूख गये। उन्होंने अपने मुँह नीचे की ओर लटका लिये, वे पैर के नखों से धरती कुरेदने लगीं। नेत्रों से दुःख के आंसू बह-बहकर काजल के साथ वक्षःस्थल पर पहुँचने और वहाँ लगी हुई केशर को धोने लगे। उनका ह्रदय दुःख से इतना भर गया कि वे कुछ बोल न सकीं, चुपचाप खड़ी रह गयीं । गोपियों ने अपने प्यारे श्यामसुन्दर के लिये सारी कामनाएँ, सारे भोग छोड़ दिये थे। श्रीकृष्ण में उनका अनन्य अनुराग, परम प्रेम था। जब उन्होंने अपने प्रियतम श्रीकृष्ण की यह निष्ठुरता से भारी बात सुनी, जो बड़ी ही अप्रिय-सी मालूम हो रही थी, तब उन्हें बड़ा दुःख हुआ। आँखें रोते-रोते लाल हो गयीं, आंसुओं के मारे रूँध गयीं। उन्होंने धीरज धारण करके अपनी आँखों के आँसू पीछे और फिर प्रणयकोप के कारण वे गद्गद वाणी से कहने लगीं । गोपियों ने कहा—प्यारे श्रीकृष्ण! तुम घट-घट व्यापी हो। हमारे ह्रदय की बात जानते हो। तुम्हें इस प्रकार निष्ठुरता भरे वचन नहीं कहने चाहिये। हम सब कुछ छोड़कर केवल तुम्हारे चरणों में ही प्रेम करती हैं। इसमें सन्देह नहीं कि तुम स्वतन्त्र और हठीले हो। तुम पर हमारा कोई वश नहीं है। फिर भी तुम अपनी और से, जैसे आदि पुरुष भगवान नारायण कृपा करके अपने मुमुक्षु भक्तों से प्रेम करते हैं, वैसे ही हमें स्वीकार कर लो। हमारा त्याग मत करो । प्यारे श्यामसुन्दर! तुम सब धर्मों का रहस्य जानते हो। तुम्हारा यह कहना कि ‘अपने पति, पुत्र और भाई-बंधुओं की सेवा करना ही स्त्रियों का स्वधर्म है’—अक्षरशः ठीक है। परन्तु इस उपदेश के अनुसार हमें तुम्हारी ही सेवा करनी चाहिये; क्योंकि तुम्हीं सब उपदेशों के पद (चरम लक्ष्य) हो; साक्षात् भगवान हो। तुम्हीं समस्त शरीरधारियों के सुहृद् हो, आत्मा हो और परम प्रियतम हो । आत्मज्ञान में निपुण महापुरुष तुमसे ही प्रेम करते हैं, क्योंकि तुम नित्य प्रिय एवं अपने ही आत्मा हो। अनित्य एवं दुःखद पति-पुत्रादि से क्या प्रयोजन है ? परमेश्वर! इसलिये हम पर प्रसन्न होओ। कृपा करो। कमलनयन! चिरकाल से तुम्हारे प्रति पाली-पोसी-आशा-अभिलाषा की लहलहाती लता का छेदन मत करो ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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