श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 30 श्लोक 1-10
दशम स्कन्ध: त्रिंशोऽध्यायः (30) (पूर्वार्ध)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान सहसा अंतर्धान हो गये। उन्हें न देखकर व्रजयुवतियों की वैसी ही दशा हो गयी, जैसे यूथपति गजराज के बिना हथिनियों की होती है। उनका ह्रदय विरह की ज्वाला से जलने लगा । भगवान श्रीकृष्ण की मदोन्मत्त गजराज की-सी चाल, प्रेमभरी मुसकान, विलासभरी चितवन, मनोरम प्रेमालाप, भिन्न-भिन्न प्रकार की लीलाओं तथा श्रृंगार-रस की भाव-भंगियों ने उनके चित्त को चुरा लिया था। वे प्रेम की मतवाली गोपियाँ श्रीकृष्णमय हो गयीं और फिर श्रीकृष्ण की विभिन्न चेष्टाओं का अनुकरण करने लगीं । अपने प्रियतम श्रीकृष्ण की चाल-ढाल, हास-विलास और चितवन-बोलन आदि में श्रीकृष्ण की प्यारी गोपियाँ उनके समान ही बन गयीं; उनके शरीर में भी वही गति-मति, वही भाव-भंगी उतर आयी। वे अपने को सर्वथा भूलकर श्रीकृष्ण-स्वरुप हो गयीं और उन्हीं के लीला-विलास का अनुकरण करती हुई ‘मैं श्रीकृष्ण ही हूँ’—इस प्रकार कहने लगीं । वे सब परस्पर मिलकर ऊँचे स्वर से उन्हीं के गुणों का गान करने लगीं और मतवाली होकर एक वन से दूसरे वन में, एक झाड़ी से दूसरी झाड़ी में जा-जाकर श्रीकृष्ण को ढूँढने लगीं। परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण कहीं दूर थोड़े ही गये थे। वे तो समस्त जड़-चेतन पदार्थों में तथा उनके बाहर भी आकाश के समान एकरस स्थित ही हैं। वे वहीँ थे, उन्हीं में थे, परन्तु उन्हें न देखकर गोपियाँ वनस्पतियों से—पेड़-पौधों से उनका पता पूछने लगीं ।
(गोपियों ने पहले बड़े-बड़े वृक्षों से जाकर पूछा) ‘हे पीपल, पाकर और बरगद! नन्दनन्दन श्यामसुन्दर अपनी प्रेमभरी मुसकान और चितवन से हमारा मन चुराकर चले गये हैं। क्या तुम लोगों ने उन्हें देखा है ? कुरबक, अशोक, नागकेशर, पुन्नाग और चम्पा! बलरामजी के छोटे भाई, जिनकी मुसकान—मात्र से बड़ी-बड़ी मनिनियों का मानमर्दन हो जाता है इधर आये थे क्या ?’ (अब उन्होंने स्त्रीजाति के पौधों से कहा—) ‘बहिन तुलसी! तुम्हारा ह्रदय तो बड़ा कोमल है, तुम तो सभी लोगों का कल्याण चाहतो हो। भगवान के चरणों में तुम्हारा प्रेम तो है ही, वे भी तुमसे बहुत प्यार करते हैं। तभी तो भौंरों के मँडराते रहने पर भी वे तुम्हारी माला नहीं उतारते, सर्वदा पहले रहते हैं। क्या तुमने अपने परम प्रियतम श्यामसुन्दर को देखा है ? प्याली मालती! मल्लिके! जाती और जूही! तुम लोगों ने कदाचित् हमारे प्यारे माधव को देखा होगा। क्या वे अपने कोमल करों से स्पर्श करके तुम्हें आनन्दित करते हुए इधर से गये हैं ?’ ‘रसाल, प्रियाल, कटहल, पीतशाल, कचनार, जामुन, आक, बेल, मौलसिरी, आम, कदम्ब और नीम तथा अन्यान्य यमुना के तटपर विराजमान सुखी तरुवारों! तुम्हारा जन्म-जीवन केवल परोपकार के लिये है। श्रीकृष्ण के बिना हमारा जीवन सूना हो रहा है। हम बेहोश हो रही हैं। तुम हमें उन्हें पाने का मार्ग बता दो’,‘भगवान की प्रेयसी पृथ्वीदेवी! तुमने ऐसी कौन-सी तपस्या की है कि श्रीकृष्ण के चरणकमलों का स्पर्श प्राप्त करके तुम आनन्द से भर रही हो और तृण-लता आदि के रूप में अपना रोमांच प्रकट कर रही हो ? तुम्हारा यह उल्लास-विलास श्रीकृष्ण के चरणस्पर्श के कारण है अथवा वामनावतार में विश्वरूप धारण करके उन्होंने तुम्हें जो नापा था, उसके कारण है ? कहीं उनसे भी पहले वराह भगवान के अंग-संग के कारण तो तुम्हारी यह दशा नहीं हो रही है ?’ ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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