श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 3 श्लोक 1-12
दशम स्कन्ध: तृतीय अध्याय (पूर्वार्ध)
भगवान श्रीकृष्ण का प्राकट्य
श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! अब समस्त शुभ गुणों से युक्त बहुत सुहावना समय आया। रोहिणी नक्षत्र था। आकाश के सभी नक्षत्र, ग्रह और तारे शान्त-सौम्य हो रहे थे[१], दिशाऐं स्वच्छ, प्रसन्न थीं। निर्मल आकाश में तारे जगमगा रहे थे। पृथ्वी के बड़े-बड़े नगर, छोटे-छोटे गाँव, अहीरों की बस्तियाँ और हीरे आदि की खानें मंगलमय हो रहीं थीं। नदियों का जल निर्मल हो गया था। रात्रि के समय भी सरोवरों में कमल खिल रहे थे। वन में वृक्षों की पत्तियाँ रंग-बिरंगे पुष्पों के गुच्छों से लद गयीं थीं। कहीं पक्षी चहक रहे थे, तो कहीं भौंरे गुनगुना रहे थे। उस समय परम पवित्र और शीतल-मंद-सुगन्ध वायु अपने स्पर्श से लोगों को सुखदान करती हुई बह रही थी। ब्राह्मणों के अग्निहोत्र की कभी न बुझने वाली अग्नियाँ जो कंस के अत्याचार से बुझ गयीं थीं, वे इस समय अपने-आप जल उठीं। संत पुरुष पहले से ही चाहते थे कि असुरों की बढ़ती न होने पाये। अब उनका मन सहसा प्रसन्नता से भर गया। जिस समय भगवान के आविर्भाव का अवसर आया, स्वर्ग में देवताओं की दुन्दुभियाँ अपने-आप बज उठीं। किन्नर और गन्धर्व मधुर स्वर में गाने लगे तथा सिद्ध और चारण भगवान के मंगलमय गुणों की स्तुति करने लगे। विद्याधरियाँ अप्सराओं के साथ नाचने लगीं। बड़े-बड़े देवता और ऋषि-मुनि आनन्द से भरकर पुष्पों को वर्षा करने लगे[२], जल से भरे हुए बादल समुद्र के पास जाकर धीरे-धीरे गर्जना करने लगे।[३]
जन्म-मृत्यु के चक्र से छुड़ाने वाले जनार्दन के अवतार का समय था निशीथ। चारों ओर अन्धकार का साम्राज्य था। उसी समय सबके ह्रदय में विराजमान भगवान विष्णु देवरूपिणी देवकी के गर्भ से प्रकट हुए, जैसे पूर्व दिशा में सोलहों कलाओं से पूर्ण चन्द्रमा का उदय हो गया हो। वसुदेव जी ने देखा, उनके सामने एक अद्भुत बालक है। उसके नेत्र कमल के समान कोमल और विशाल हैं। चार सुन्दर हाथों में शंख, गदा, चक्र और कमल लिये हुए है। वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह—अत्यन्त सुन्दर सुवर्णमयी रेखा है। गले में कौस्तुभमणि झिलमिला रही है। वर्षाकालीन मेघ के समान परम सुन्दर श्यामल शरीर पर मनोहर पीताम्बर फहरा रहा है। बहुमूल्य वैदूर्यमणि के किरीट और कुण्डल की कान्ति से सुन्दर-सुन्दर घुँघराले बाल सूर्य की किरणों के सामान चमक रहे हैं। कमर में चमचमाती करधनी की लड़ियाँ लटक रहीं हैं। बाँहों में बाजूबंद और कलाईयों में कंकण शोभायमान हो रहे हैं। इन सब आभूषणों से सुशोभित बालक के अंग-अंग से अनोखी छटा छिटक रही है। जब वसुदेव जी ने देखा कि मेरे पुत्र के रूप में स्वयं भगवान ही आये हैं, तब पहले तो उन्हें असीम आश्चर्य हुआ; फिर आनन्द से उनकी आँखें खिल उठी। उनका रोम-रोम परमानन्द में मग्न हो गया। श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाने की उतावली में उन्होंने उसी समय ब्राह्मणों के लिए दस हज़ार गायों का संकल्प कर दिया। परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण अपनी अंगकांति से सूतिका गृह को जगमग कर रहे थे। जब वसुदेव जी को यह निश्चय हो गया कि ये तो परम पुरुष परमात्मा ही हैं, तब भगवान का प्रभाव जान लेने से उनका सारा भय जाता रहा। अपनी बुद्धि स्थिर करके उन्होंने भगवान के चरणों में अपना सर झुका दिया और फिर हाथ जोड़कर वे उनकी स्तुति करने लगे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जैसे अन्तःकरण शुद्ध होने पर उसमें भगवान का आविर्भाव होता है, श्रीकृष्णावतार के अवसर पर भी ठीक उसी प्रकार समष्टि शुद्धि का वर्णन किया गया है। इसमें काल, दिशा, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन और आत्मा- इन नौ द्रव्यों का अलग-अलग नामोल्लेख करके साधक के लिये एक अत्यन्त उपयोगी साधन-पद्धति की ओर संकेत किया गया है।
काल-
भगवान काल से परे हैं। शास्त्रों और सत्पुरुषों के द्वारा ऐसा निरूपण सुनकर काल मानो क्रुद्ध हो गया था और रूद्र रूप धारण करके सबको निगल रहा था। आज जब उसे मालूम हुआ कि स्वयं परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण मेरे अंदर अवतीर्ण हो रहे हैं, तब उस आनन्द से भर गया और समस्त सद्गुणों को धारण कर तथा सुहावना बनकर प्रकट हो गया।
दिशा-- प्राचीन शास्त्रों में दिशाओं को देवी माना गया है। उनके एक-एक स्वामी भी होते हैं- जैसे प्राची के इन्द्र, प्रतीची के वरुण आदि। कंस के राज्य-काल में ये देवता पराधीन- कैदी हो गये थे। अब भगवान श्रीकृष्ण के अवतार से देवताओं की गणना के अनुसार ग्यारह-बारह दिनों में ही उन्हें छुटकारा मिल जायगा, इसलिये अपने पतियों के संगम-सौभाग्य का अनुसंधान करके देवियाँ प्रसन्न हो गयीं। जो देव एवं दिशा के परिच्छेद से रहित हैं, वे ही प्रभु भारत देश के ब्रज-प्रदेश में आ रहे हैं, यह अपूर्व आनन्दोत्सव भी दिशाओं की प्रसन्नता का हेतु है।
- संस्कृत-साहित्य में दिशाओं का एक नाम ‘आशा’ भी है। दिशाओं की प्रसन्नता का एक अर्थ यह भी है कि अब सत्पुरुषों की आशा-अभिलाषा पूर्ण होगी।
- विराट-पुरुष के अवयव-संस्थान का वर्णन करते समय दिशाओं को उनका कान बताया गया है। श्रीकृष्ण के अवतार के अवसर पर दिशाएँ मानों यह सोचकर प्रसन्न हो गयीं कि प्रभु असुर-असाधुओं के उपद्रव से दुःखी प्राणियों की प्रार्थना सुनने के लिये सतत सावधान हैं।
- पुराणों में भगवान की दो पत्नियों का उल्लेख मिलता है- एक श्रीदेवी और दूसरी भूदेवी। ये दोनों चल-सम्पत्ति और अचल-सम्पत्ति की स्वामिनी हैं। इनके पति हैं- भगवान, जीव नहीं। जिस समय श्रीदेवी के निवास स्थान वैकुण्ठ से उतरकर भगवान भूदेवी के निवास स्थान पर आने लगे, तब जैसे परदेश से पति के आगमन का समाचार सुनकर पत्नी सज-धजकर अगवानी करने के लिये निकलती है, वैसे ही पृथ्वी का मंगलमयी होना, मंगल चिन्हों को धारण करना स्वाभाविक ही है।
- भगवान के श्रीचरण मेरे वक्षःस्थल पर पड़ेंगे, अपने सौभाग्य का ऐसा अनुसन्धान करके पृथ्वी आनन्दित हो गयी।
- वामन ब्रह्मचारी थे। परशुराम जी ने ब्राह्मणों को दान दे दिया। श्री रामचन्द्र ने मेरी पुत्री जानकी से विवाह कर लिया। इसलिए उन अवतारों में मैं भगवान से जो सुख नहीं प्राप्त कर सकी, वही श्रीकृष्ण से प्राप्त करूँगी। यह सोचकर पृथ्वी मंगलमयी हो गयी।
- अपने पुत्र मंगल को गोद में लेकर पतिदेव का स्वागत करने चली।
- नदियों ने विचार किया कि रामावतार में सेतु-बन्धन के बहाने हमारे पिता पर्वतों को हमारी ससुराल समुद्र में पहुँचाकर इन्होंने हमें मायके का सुख दिया था। अब इनके शुभागमन के अवसर पर हमें भी प्रसन्न होकर इनका स्वागत करना चाहिये।
- नदियाँ सब गंगा जी से कहती थीं—‘तुमने हमारे पिता पर्वत देखे हैं, अपने पिता भगवान विष्णु के दर्शन कराओ।’ गंगा जी ने सुनी-अनसुनी कर दी। अब वे इसलिये वे निर्मल हो गयीं।
- यद्यपि भगवान समुद्र में नित्य निवास करते हैं, फिर भी ससुराल होने के कारण वे उन्हें वहाँ देख नहीं पातीं। अब उन्हें पूर्ण रूप से देख सकेंगी, इसलिये वे निर्मल हो गयीं।
- निर्मल ह्रदय को भगवान मिलते हैं, इसलिये वे निर्मल हो गयीं।
- नदियों को जो सौभाग्य किसी भी अवतार में नहीं मिला, वह कृष्णावतार में मिला। श्रीकृष्ण की चतुर्थ पटरानी हैं- श्री कालिन्दी जी। अवतार लेते ही यमुना जी के तट पर जाना, ग्वाल-बाल एवं गोपियों के साथ जल क्रीड़ा करना, उन्हें अपनी पटरानी बनाना- इन सब बातों को सोचकर नदियाँ आनन्द से भर गयीं।
कालिय-दमन करके कालिय-दह का शोधन, ग्वालबालों और अक्रूर को ब्रह्म-हृद में ही अपने स्वरुप के दर्शन आदि स्व-सम्बन्धी लीलाओं का अनुसन्धान करके हृदों के कमल के बहाने अपने प्रफुल्लित ह्रदय को ही श्रीकृष्ण के प्रति अर्पित कर दिया। उन्होंने कहा कि ‘प्रभो! भले ही हमें लोग जड समझा करें, आप हमें कभी स्वीकार करेंगे, इस भावी सौभाग्य के अनुसन्धान से हम सहृदय हो रहे हैं।’
अग्नि-- इस अवतार में श्रीकृष्ण ने व्योमासुर, तृणावर्त, कालिय के दमन से आकाश, वायु और जल की शुद्धि की है। मृद्-भक्षण से पृथ्वी की और अग्निपान से अग्नि की। भगवान श्रीकृष्ण ने दो बार अग्नि को अपने मुँह में धारण किया। इस भावी सुख का अनुसन्धान करके ही अग्निदेव शान्त होकर प्रज्वलित होने लगे।
- देवताओं के लिये यज्ञ-भाग आदि बन्द हो जाने के कारण अग्निदेव भी भूखे ही थे। अब श्रीकृष्णावतार से अपने भोजन मिलने की आशा से अग्निदेव प्रसन्न होकर प्रज्वलित हो उठे।
- उदारशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण के जन्म के अवसर पर वायु ने सुख लुटाना प्रारम्भ किया; क्योंकि समान शील से ही मैत्री होती है। जैसे स्वामी के सामने सेवक, प्रजा पाने गुण प्रकट करके उसे प्रसन्न करती है, वैसे ही वायु भगवान के सामने अपने गुण प्रकट करने लगे।
- आनन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्र के मुखारविन्द पर जब श्रमजनित स्वेदबिन्दु आ जायँगे, तब मैं ही शीतल-मन्द-सुगन्ध गति से उसे सुखाऊँगा- यह सोचकर पहले से ही वायु का सेवा का अभ्यास करने लगा।
- यदि मनुष्य प्रभु-चरणारविन्द के दर्शन की लालसा हो तो उसे विश्व की सेवा ही करनी चाहिये, मानो यह उपदेश करता हुआ वायु सबकी सेवा करने लगा।
- रामावतार में मेरे पुत्र हनुमान ने भगवान की सेवा की, इससे मैं कृतार्थ ही हूँ; परन्तु इस अवतार में मुझे स्वयं ही सेवा कर लेनी चाहिये। इस विचार से वायु लोगों को सुख पहुँचाने लगा।
- सम्पूर्ण विश्व के प्राण वायु ने सम्पूर्ण विश्व की ओर से भगवान के स्वागत-समारोह में प्रतिनिधित्व किया।
- आकाश की एकता, आधारता, विशालता और समता की उपमा तो सदा से ही भगवान के साथ दी जाती रही, परन्तु अब उसकी झूठी नीलिमा भी भगवान के अंग से उपमा देने से चरितार्थ हो जायगी, इसलिये आकाश ने मानो आनन्दोत्सव मनाने के लिये नीले चँदोवे में हीरों के समान तारों की झालरें लटका ली हैं।
- स्वामी के शुभागमन के अवसर पर जैसे सेवक स्वच्छ वेष-भूषा धारण करते हैं और शान्त हो जाते हैं, इसी प्रकार आकाश के सब नक्षत्र, ग्रह, तारे शान्त एवं निर्मल हो गये। वक्रता, अतिचार और युद्ध छोड़कर श्रीकृष्ण का स्वागत करने लगे।
मैं देवकी के गर्भ से जन्म ले रहा हूँ तो रोहिणी के संतोष के लिये कम-से-कम रोहिणी नक्षत्र में जन्म लेना ही चाहिये। अथवा चन्द्रवंश में जन्म ले रहा हूँ, तो चन्द्रमा की सबसे प्यारी पत्नी रोहिणी में ही जन्म लेना उचित है। यह सोचकर भगवान ने रोहिणी नक्षत्र में जन्म लिया।
मन-- योगी मन का निरोध करते हैं, मुमुक्षु निर्विषय करते हैं और जिज्ञासु बाध करते हैं। तत्वज्ञों ने तो मन का सत्यानाश ही कर दिया। भगवान के अवतार का समय जानकर उसने सोचा कि अब तो मैं अपनी पत्नी-इन्द्रियाँ और विषय- बाल-बच्चे सबके साथ ही भगवान के साथ खेलूँगा। निरोध और बाध से पिण्ड छूटा। इसी से मन प्रसन्न हो गया।
- निर्मल को ही भगवान मिलते हैं, इसलिये मन निर्मल हो गया।
- वैसे शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध का परित्याग कर देने पर भगवान मिलते हैं। अब तो स्वयं भगवान ही वह सब बनकर आ रहे हैं। लौकिक आनन्द भी प्रभु में मिलेगा। यह सोचकर मन प्रसन्न हो गया।
- वसुदेव के मन में निवास करके ये ही भगवान प्रकट हो रहे है। वह हमारी ही जाति का है, यह सोचकर मन प्रसन्न हो गया।
- सुमन (देवता और शुद्ध मन) को सुख देने के लिये ही भगवान का अवतार हो रहा है। यह जानकर सुमन प्रसन्न हो गये।
- संतों में, स्वर्ग में और उपवन में सुमन (शुद्ध मन, देवता और पुष्प) आनन्दित हो गये। क्यों न हो, माधव (विष्णु और वसन्त) का आगमन जो हो रहा है।
भद्र अर्थात् कल्याण देने वाला है। कृष्णपक्ष स्वयं कृष्ण से सम्बद्ध है। अष्टमी तिथि पक्ष के बीचोबीच सन्धि-स्थल पर पड़ती है। रात्रि योगीजनों को प्रिय है। निशीथ यतियों का सन्ध्याकाल और रात्रि के दो भागों की सन्धि है। उस समय श्रीकृष्ण के आविर्भाव का अर्थ है—अज्ञान के घोर अन्धकार में दिव्य प्रकाश। निशानाथ चन्द्र के वंश में जन्म लेना है, तो निशा के मध्यभाग में अवतीर्ण होना उचित भी है। अष्टमी के चन्द्रोदय का समय भी वही है। यदि वसुदेव जी मेरा जातकर्म नहीं कर सकते तो हमारे वंश के आदि पुरुष चन्द्रमा समुद्र स्नान करके अपने कर-किरणों से अमृत का वितरण करें। - ↑ ऋषि, मुनि और देवता जब अपने सुमन की वर्षा करने के लिये मथुरा की ओर दौड़े, तब उनका आनन्द भी पीछे छूट गया और उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा। उन्होंने अपना निरोध और बाध सम्बन्धी सारे विचार त्यागकर मन को श्रीकृष्ण की ओर जाने के लिये मुक्त कर दिया, उन पर न्यौछावर कर दिया।
- ↑ 1. मेघ समुद्र के पास जाकर मन्द-मन्द गर्जना करते हुए कहते—जलनिधे! यह तुम्हारे उपदेश (पास आने) का फल है कि हमारे पास जल-ही-जल हो गया। अब ऐसा कुछ उपदेश करो कि जैसे तुम्हारे भीतर भगवान रहते हैं, वैसे हमारे भीतर भी रहें। 2. बादल समुद्र के पास जाते और कहते हैं कि समुद्र! तुम्हारे ह्रदय में भगवान रहते हैं, हमें भी उनका दर्शन-प्यार प्राप्त करवा दो। समुद्र उन्हें थोडा-सा जल देकर कह देता- अपनी उत्ताल तरंगों से ढकेल देता- जाओ अभी विश्व की सेवा करके अन्तःकरण शुद्ध करो, तब भगवान के दर्शन होंगे। स्वयं भगवान मेघश्याम बनकर समुद्र से बाहर ब्रज में आ रहे हैं। हम धूप में उन पर छाया करेंगे, अपनी फुइयाँ बरसाकर जीवन न्यौछावर करेंगे और उनकी बाँसुरी के स्वर पर ताल देंगे। अपने इस सौभाग्य का अनुसन्धान करके बादल समुद्र के पास पहुँचे और मन्द-मन्द गर्जना करने लगे। मन्द-मन्द इसलिये कि यह ध्वनि प्यारे श्रीकृष्ण के कानों में न पहुँच जाय।
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