श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 52 श्लोक 16-31

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दशम स्कन्ध: द्विपञ्चाशत्त्मोऽध्यायः (52) (उत्तरार्धः)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्विपञ्चाशत्त्मोऽध्यायः श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद

परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण भी स्वयंवर में आये हुए शिशुपाल और उसके पक्षपाती शाल्व आदि नरपतियों को बलपूर्वक हराकर सबके देखते-देखते, जैसे गरुड़ ने सुधा का हरण किया था, वैसे ही विदर्भदेश की राजकुमारी रुक्मिणी को हर लाये और उनसे विवाह कर लिया। रुक्मणिजी राजा भीष्मक की कन्या और स्वयं भगवती लक्ष्मीजी का अवतार थीं ।

राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! हमने सुना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने भीष्मक नन्दिनी परमसुन्दरी रुक्मिणी देवी को बलपूर्वक हरण करके राक्षसविधि से उनके साथ विवाह किया था । महाराज! अब मैं यह सुनना चाहता हूँ कि परम तेजस्वी भगवान श्रीकृष्ण ने जरासन्ध, शाल्व आदि नरपतियों को जीतकर किस प्रकार रुक्मिणी का हरण किया ? ब्रम्हर्षे! भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं के सम्बन्ध में क्या कहना है ? वे स्वयं तो पवित्र हैं ही, सारे जगत् का मल धो-बहाकर उसे भी पवित्र कर देने वाली हैं। उनमें ऐसी लोकोत्तर माधुरी है, जिसे दिन-रात सेवन करते रहने पर भी नित्य नया-नया रस मिलता रहता है। भला ऐसा कौन रसिक, कौन मर्मज्ञ है, जो उन्हें सुनकर तृप्त न हो जाय ।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! महाराज भीष्मक विदर्भदेश के अधिपति थे। उनके पाँच पुत्र और एक सुन्दरी कन्या थी । सबसे बड़े पुत्र का नाम था रुक्मी और चार छोटे थे—जिनके नाम थे क्रमशः रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेश और रुक्ममाली। इनकी बहिन थीं सती रुक्मिणी । जब उसने भगवान श्रीकृष्ण के सौन्दर्य, पराक्रम, गुण और वैभव की प्रशंसा सुनी—जो उसके महल में आने वाले अतिथि प्रायः गाया ही करते थे—तब उसने यही निश्चय किया कि भगवान श्रीकृष्ण भी समझते थे कि ‘रुक्मिणी में बड़े सुन्दर-सुन्दर लक्षण हैं, वह परम बुद्धिमती है; उदारता, सौन्दर्य, शीलस्वभाव और गुणों में भी अद्वितीय है। इसलिये रुक्मिणीजी ही मेरे अनुरूप पत्नी है। अतः भगवान ने रुक्मिणीजी से विवाह करने का निश्चय किया । रुक्मिणीजी के भाई-बन्धु भी चाहते थे कि हमारी बहिन का विवाह श्रीकृष्ण से ही हो। परन्तु रुक्मी श्रीकृष्ण से बड़ा द्वेष रखता था, उसने उन्हें विवाह करने से रोक दिया और शिशुपाल को ही अपनी बहिन के योग्य वर समझा ।

जब परमसुन्दरी रुक्मिणी को यह मालूम हुआ कि मेरा बड़ा भाई रुक्मी शिशुपाल के साथ मेरा विवाह करना चाहता है, तब वे बहुत उदास हो गयीं। उन्होंने बहुत कुछ सोंच-विचारकर एक विश्वास-पात्र ब्राम्हण को तुरंत श्रीकृष्ण के पास भेजा । जब वे ब्राम्हण-देवता द्वारकापुरी में पहुँचे तब द्वारपाल उन्हें राजमहल के भीतर ले गये। वहाँ जाकर ब्राम्हण-देवता ने देखा कि आदिपुरुष भगवान श्रीकृष्ण सोने के सिंहासन पर विराजमान हैं । ब्राम्हणों के परमभक्त भगवान श्रीकृष्ण उन ब्राम्हणदेवता को देखते ही अपने आसन से नीचे उतर गये और उन्हें अपने आसन पर बैठाकर वैसी ही पूजा की जैसे देव्तालोग उनकी (भगवान की) किया करते हैं । आदर-सत्कार, कुशल-प्रश्न के अनन्तर जब ब्राम्हणदेवता खा-पी चुके, आराम-विश्राम कर चुके तब संतों के परम आश्रय भगवान श्रीकृष्ण उनके पास गये और अपने कोमल हाथों से उनके पैर सहलाते हुए बड़े शान्त भाव से पूछने लगे—

‘ब्राम्हणशिरोमणे! आपका चित्त तो सदा-सर्वदा सन्तुष्ट रहता है न ? आपको अपने पूर्वपुरुषों द्वारा स्वीकृत धर्म का पालन करने में कोई कठिनाई तो नहीं होती । ब्राम्हण यदि जो कुछ मिल जाय उसी में सन्तुष्ट रहे और अपने धर्म का पालन करे, उससे च्युत न हो तो वह सन्तोष ही उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण कर देता है ।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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