श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 64 श्लोक 14-26
दशम स्कन्ध: चतुःषष्टितमोऽध्यायः (64) (उत्तरार्धः)
भगवन्! मैं युवावस्था से सम्पन्न श्रेष्ठ ब्राम्हणकुमारों को—जो सद्गुणी, शीलसम्पन्न, कष्ट में पड़े हुए कुटुम्ब वाले, दम्भरहित तपस्वी, वेदपाठी, शिष्यों को विद्यादान करने वाले तथा सच्चरित्र होते—वस्त्राभूषण से अलंकृत करता और उन गौओं का दान करता । इस प्रकार मैंने बहुत-सी गौएँ, पृथ्वी, सोना, घर, घोड़े, हाथी, दसियों के सहित कन्याएँ, तिलों के पर्वत, चाँदी, शय्या, वस्त्र, रत्न, गृह-सामग्री और रथ आदि दान किये। अनेकों यज्ञ किये और बहुत-से कुएँ, बावली आदि बनवाये ।
एक दिन किसी अप्रतिग्रही (दान न लेने वाले), तपस्वी ब्राम्हण की एक गाय बिछुड़कर मेरी गौओं में आ मिली। मुझे इस बात का बिलकुल पता न चला। इसलिये मैंने अनजान में उसे किसी दूसरे ब्राम्हण को दान कर दिया । जब उस गाय को वे ब्राम्हण ले चले, तब उस गाय के असली स्वामी ने कहा—‘यह गौ मेरी है।’ दाने ले जाने वाले ब्राम्हण ने कहा—‘यह तो मेरी है, क्योंकि राजा नृग ने मुझे इसका दान किया है’ । वे दोनों ब्राम्हण आपस में झगड़ते हुए अपनी-अपनी बात कायम करने के लिये मेरे पास आये। एक ने कहा—यह गाय अभी-अभी आपने मुझे दी है’ और दूसरे ने कहा कि ‘यदि ऐसी बात है तो तुमने मेरी गाय चुरा ली है।’ भगवन्! उन दोनों ब्राम्हणों की बात सुनकर मेरा चित्त भ्रमित हो गया । मैंने धर्मसंकट में पड़कर उन दोनों से बड़ी अनुनय-विनय की और कहा कि ‘मैं बदले में एक लाख उत्तम गौएँ दूँगा। आप लोग मुझे यह गाय दे दीजिये । मैं आप लोगों का सेवक हूँ। मुझसे अनजाने में यह अपराध बन गया है। मुझ पर आप लोग कृपा कीजिये और मुझे इस घोर कष्ट से तथा घोर नरक में गिरने से बचा लीजिये’ । ‘राजन्! मैं इसके बदले मैं कुछ नहीं लूँगा।’ यह कहकर गाय का स्वामी चला गया। ‘तुम इसके बदले में एक लाख ही नहीं, दस हजार गाएँ और दो तो भी मैं लेने का नहीं।’ इस प्रकार कहकर दूसरा ब्राम्हण भी चला गया । देवाधिदेव जगदीश्वर! इसके बाद आयु समाप्त होने पर यमराज के दूत आये और मुझे यमपुरी ले गये। वहाँ यमराज ने मुझसे पूछा— ‘राजन्! तुम पहले अपने पाप का फल भोगना चाहते हो या पुण्य का ? तुम्हारे दान और धर्म के फलस्वरूप तुम्हें ऐसा तेजस्वी लोक प्राप्त होने वाला है, जिसकी कोई सीमा ही नहीं है’ । भगवन्! तब मैंने यमराज से कहा—‘देव! पहले मैं अपने पाप का फल भोगना चाहता हूँ।’ और उसी क्षण यमराज ने कहा—‘तुम गिर जाओ।’ उनके ऐसा कहते ही मैं वहाँ से गिरा और गिरते ही समय मैंने देखा कि मैं गिरगिट हो गया हूँ । प्रभो! मैं ब्राम्हणों का सेवक, उदार, दानी और आपका भक्त था। मुझे इस बात उत्कट अभिलाषा थी कि किसी प्रकार आपके दर्शन हो जायँ। इस प्रकार आपकी कृपा से मेरे पूर्वजन्मों की स्मृति नष्ट न हुई । भगवन्! आप परमात्मा हैं। बड़े-बड़े शुद्ध-ह्रदय योगीश्वर उपनिषदों की दृष्टि से (अभेददृष्टि से) अपने ह्रदय में आपका ध्यान करते हैं। इन्द्रियातीत परमात्मन्! साक्षात् आप मेरे नेत्रों के सामने कैसे आ गये! क्योंकि मैं तो अनेक प्रकार के व्यसनों, दुःखद कर्मों में फँसकर अंधा हो रहा था। आपका दर्शन तो तब होता है, जब संसार के चक्कर से छुटकारा मिलने का समय आता है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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