श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 65 श्लोक 1-12

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दशम स्कन्ध: पञ्चषष्टितमोऽध्यायः (65) (उत्तरार्धः)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पञ्चषष्टितमोऽध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद



श्रीबलरामजी का व्रजगमन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान बलरामजी के मन में व्रज के नन्दबाबा आदि स्वजन सम्बन्धियों से मिलने की बड़ी इच्छा और उत्कण्ठा थी। अब वे रथ पर सवार होकर द्वारका से नन्दबाबा के व्रज में आये । इधर उनके लिये व्रजवासी गोप और गोपियाँ भी बहुत दिनों से उत्कण्ठित थीं। उन्हें अपने बीच में पाकर सबने बड़े प्रेम से गले लगाया। बलरामजी ने माता यशोदा और नन्दबाबा को प्रणाम किया। उन लोगों ने भी आशीर्वाद देकर उनका अभिनन्दन किया । यह कहकर कि ‘बलरामजी! तुम जगदीश्वर हो, अपने छोटे भाई श्रीकृष्ण के साथ सर्वदा हमारी रक्षा करते रहो, उनको गोद में ले लिया और अपने प्रेमाश्रुओं से उन्हें भिगो दिया । इसके बाद बड़े-बड़े गोपों को बलरामजी ने और छोटे-छोटे गोपों ने बलरामजी को नमस्कार किया। वे अपनी आयु, मेल-जोल और सम्बन्ध के अनुसार सबसे मिले-जुले । ग्वालबालों के पास जाकर किसी से हाथ मिलाया, किसी से मीठी-मीठी बातें कीं, किसी को खूब हँस-हँसकर गले लगाया। इसके बाद जब बलरामजी की थकावट दूर हो गयी, वे आराम से बैठ गये, तब सब ग्वाल उनके पास आये। इन ग्वालों ने कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण के लिये समस्त भोग, स्वर्ग और मोक्ष तक त्याग रखा था। बलरामजी ने जब उनके और उनके घर वालों के सम्बन्ध में कुशलप्रश्न किया, तब उन्होंने प्रेम-गद्गद वाणी से उनसे प्रश्न किया । ‘बलरामजी! वसुदेवजी आदि हमारे सब भाई-बन्धु सकुशल हैं न ? अब आप लोग स्त्री-पुत्र आदि के साथ रहते हैं, बाल-बच्चेदार हो गये हैं; क्या कभी आप लोगों को हमारी याद भी आती है ? यह बड़े सौभाग्य की बात है कि पापी कंस को आप लोगों ने मार डाला और अपने सुह्रद्-सम्बन्धियों को बड़े कष्ट से बचा लिया। यह भी कम आनन्द की बात नहीं है कि आप लोगों ने और भी बहुत-से शत्रुओं को मार डाला या जीत लिया और अब अत्यन्त सुरक्षित दुर्ग (किले) में आप लोग निवास करते हैं’।

परीक्षित्! भगवान बलरामजी के दर्शन से, उनकी प्रेमभरी चितवन से गोपियाँ निहाल हो गयीं। उन्होंने हँसकर पूछा—‘क्यों बलरामजी! नगर-नारियों के प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण अब सकुशल हो हैं न ? क्या कभी उन्हें अपने भाई-बन्धु और पिता-माता की भी याद आती है! क्या वे अपनी माता के दर्शन के लिये एक बार भी यहाँ आ सकेंगे! क्या महाबाहु श्रीकृष्ण कभी हम लोगों की सेवा का भी कुछ स्मरण करते हैं । आप जानते हैं कि स्वजन-सम्बन्धियों को छोड़ना बहुत ही कठिन है। फिर भी हमने उनके लिये माँ-बाप, भाई-बन्धु, पति-पुत्र और बहिन-बेटियों को भी छोड़ दिया। परन्तु प्रभो! वे बात-की-बात में हमारे सौहार्द और प्रेम का बन्धन काटकर, हमसे नाता तोड़कर परदेश चले गये; हम लोगों को बिलकुल ही छोड़ दिया। हम चाहतीं तो उन्हें रोक लेतीं; परन्तु जब वे कहते कि हम तुम्हारे ऋणी हैं—तुम्हारे उपकार का बदला कभी नहीं चुका सकते, तब ऐसी कौन-सी स्त्री है, जो उनकी मीठी-मीठी बातों पर विश्वास न कर लेतीं’।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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