श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 65 श्लोक 25-32
दशम स्कन्ध: पञ्चषष्टितमोऽध्यायः (65) (उत्तरार्धः)
जब बलरामजी ने यमुनाजी को इस प्रकार डाँटा-फटकारा, तब वे चकित और भयभीत होकर बलरामजी के चरणों पर गिर पड़ीं और गिड़गिड़ाकर प्रार्थना करने लगीं— ‘लोकाभिराम बलरामजी! महाबाहो! मैं आपका पराक्रम भूल गयी थी। जगत्पते! अब मैं जान गयीं कि आपके अंशमात्र शेषजी इस सारे जगत् को धारण करते हैं । भगवन्! आप परम ऐश्वर्यशाली हैं। आपके वास्तविक स्वरुप को न जानने के कारण ही मुझसे यह अपराध बन गया है। सर्वस्वरुप भक्तवत्सल! मैं आपकी शरण में हूँ। आप मेरी भूल-चूक क्षमा कीजिये, मुझे छोड़ दीजिये’।
अब यमुनाजी कि प्रार्थना स्वीकार करके भगवान बलरामजी ने उन्हें क्षमा कर दिया और फिर जैसे गजराज हथिनियों के साथ क्रीडा करता है, वैसे ही वे गोपियों के साथ जलक्रीडा करने लगे । जब वे यथेष्ट जल-विहार करके यमुनाजी से बाहर निकले, तब लक्ष्मीजी ने उन्हें नीलाम्बर, बहुमूल्य आभूषण और सोने का सुन्दर हार दिया । बलरामजी ने नील वस्त्र पहन लिये और सोने की माला गले में डाल ली। वे अंगराग लगाकर, सुन्दर भूषणों से विभूषित होकर इस प्रकार शोभायमान हुए मानो इन्द्र का श्वेतवर्ण ऐरावत हाथी हो । परीक्षित्! यमुनाजी अब भी बलरामजी के खींचे हुए मार्ग से बहती हैं और वे ऐसी जान पड़ती हैं, मानो अनन्तशक्ति भगवान बलरामजी का यश-गान कर रही हों । बलरामजी का चित्त व्रजवासिनी गोपियों के माधुर्य से इस प्रकार मुग्ध हो गया कि उन्हें समय का कुछ ध्यान न रहा, बहुत-सी रात्रियाँ एक रात के समान व्यतीत हो गयीं। इस प्रकार बलरामजी व्रज में विहार करते रहे ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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