श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 70 श्लोक 26-31
दशम स्कन्ध: सप्ततितमोऽध्यायः(70) (उत्तरार्ध)
भगवन्! अधिकांश जीव ऐसे सकाम और निषिद्ध कर्मों में फँसे हुए हैं कि वे आपके बतलाये हुए अपने परम कल्याणकारी कर्म, आपकी उपासना से विमुख हो गये हैं और अपने जीवन एवं जीवनसम्बन्धी आशा-अभिलाषाओं में भ्रम-भटक रहे हैं। परन्तु आप बड़े बलवान् हैं। आप काल रूप से सदा-सर्वदा सावधान रहकर उनकी आशालता का तुरंत समूल उच्छेद कर डालते हैं। हम आपके उस कालरूप को नमस्कार करते हैं । आप स्वयं जगदीश्वर हैं और आपने जगत् में अपने ज्ञान, बल आदि कलाओं के साथ इसलिये अवतार ग्रहण किया है कि संतों की रक्षा करें और दुष्टों को दण्ड दें। ऐसी अवस्था में प्रभो! जरासन्ध आदि कोई दूसरे राजा आपकी इच्छा और आज्ञा के विपरीत हमें कैसे कष्ट दे रहे हैं, यह बात हमारी समझ में नहीं आती। यदि यह कहा जाय कि जरासन्ध हमें कष्ट नहीं देता, उसके रूप में—उसे निमित्त बनाकर हमारे अशुभ कर्म ही हमें दुःख पहुँचा रहे हैं; तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि जब हम लोग आपके अपने हैं, तब हमारे दुष्कर्म हमें फल देने में कैसे समर्थ हो सकते हैं ? इसलिये आप कृपा करके अवश्य ही हमें इस क्लेश से मुक्त कीजिये ।प्रभो! हम जानते हैं कि राजापने का सुख प्रारब्ध के अधीन और विषयसाध्य है। और सच कहें तो स्वप्न-सुख के समान तुच्छ और असत् है। साथ ही उस सुख को भोगने वाला यह शरीर भी एक प्रकार से मुर्दा ही है और इसके पीछे सदा-सर्वदा सैकड़ों प्रकार के भय लगे रहते हैं। परन्तु हम तो इसी के द्वारा जगत् के अनेकों भार ढो रहे हैं और यही कारण है कि हमने अंतःकरण के निष्काम-भाव और निस्संकल्प स्थिति से प्राप्त होने वाले आत्मसुख का परित्याग कर दिया है। सचमुच हम अत्यन्त अज्ञानी हैं और आपकी माया के फंदे में फँसकर क्लेश-पर-क्लेश भोगते जा रहे हैं । भगवन्! आपके चरण-कमल शरणागत पुरुषों के समस्त शोक और मोहों को नष्ट कर देने वाले हैं। इसलिये आप ही जरासन्धरूप कर्मों के बन्धन से हमें छुड़ाइये। प्रभो! यह अकेला ही दस हजार हाथियों की शक्ति रखता है और हम लोगों को उसी प्रकार बंदी बनाये हुए हैं, जैसे सिंह भेड़ों को घेर रखे ।चक्रपाणे! आपने अठारह बार जरासन्ध से युद्ध किया और सत्रह बार उसका मान-मर्दन करके उसे छोड़ दिया। परन्तु एक बार उसने आपको जीत लिया। हम जानते हैं कि आपकी शक्ति, आपका बल-पौरुष अनन्त है। फिर भी मनुष्यों का-सा आचरण करते हुए आपने हारने का अभिनय किया। परन्तु इसी से उसका घमंड बढ़ गया है। हे अजित! अब वह यह जानकर हम लोगों को और भी सताता है कि हम आपके भक्त हैं, आपकी प्रजा हैं। अब आपकी जैसी इच्छा हो, वैसा कीजिये’ ।
दूत ने कहा—भगवन्! जरासन्ध के बंदी नरपतियों ने इस प्रकार आपसे प्रार्थना की है। वे आपके चरणकमलों की शरण में हैं और आपका दर्शन चाहते हैं। आप कृपा करके उन दोनों का कल्याण कीजिये ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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