श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 71 श्लोक 36-46

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दशम स्कन्ध: एकसप्ततितमोऽध्यायः(71) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकसप्ततितमोऽध्यायः श्लोक 36-46 का हिन्दी अनुवाद


नगर की स्त्रियाँ राजपथ पर चन्द्रमा के साथ विराजमान तारोओं के समान श्रीकृष्ण की पत्नियों को देखकर आपस में कहने लगीं—‘सखी! इन बड़भागिनी रानियों ने न जाने ऐसा कौन-सा पुण्य किया है, जिसके कारण पुरुषशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण अपने उन्मुक्त हास्य और विलासपूर्ण कटाक्ष से उनकी ओर देखकर उनके नेत्रों को परम आनन्द प्रदान करते हैं । इसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण राजपथ से चल रहे थे। स्थान-स्थान पर बहुत-से निष्पाप धनी-मानी और शिल्पजीवी नागरिकों ने अनेकों मांगलिक वस्तुएँ ला-लाकर उनकी पूजा-अर्चा और स्वागत सत्कार किया ।

अन्तःपुर की स्त्रियाँ भगवान श्रीकृष्ण को देखकर प्रेम और आनन्द से भर गयीं। उन्होंने अपने प्रेमविह्वल और आनन्द से खिले नेत्रों के द्वारा भगवान का स्वागत किया और श्रीकृष्ण उनका स्वागत-सत्कार स्वीकार करते हुए राजमहल में पधारे ।

जब कुन्ती ने अपने त्रिभुवनपति भतीजे श्रीकृष्ण को देखा, तब उनका ह्रदय प्रेम से भर आया। वे पलँग से उठकर अपनी पुत्रवधू द्रौपदी के साथ आगे गयीं और और भगवान श्रीकृष्ण को ह्रदय से लगा लिया । देवदेवेश्वर भगवान श्रीकृष्ण को राजमहल के अन्दर लाकर राजा युधिष्ठिर आदरभाव और आनन्द के उद्रेक से आत्म-विस्मृत हो गये; उन्हें इस बात की भी सुधि न रही कि किस क्रम से भगवान की पूजा करनी चाहिये । भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी फुआ कुन्ती और गुरुजनों की पत्नियों का अभिवादन किया। उनकी बहिन सुभद्रा और द्रौपदी ने भगवान को नमस्कार किया ।

अपनी सास कुन्ती की की प्रेरणा से द्रौपदी ने वस्त्र, आभूषण, माला आदि के द्वारा रुक्मिणी, सत्यभामा, भद्रा, जाम्बवती, कालिन्दी, मित्राविन्दा, लक्षमणा और परम साध्वी सत्या—भगवान श्रीकृष्ण की इन पटरानियों का तथा वहाँ आयी हुई श्रीकृष्ण की अन्यान्य रानियों का भी यथायोग्य सत्कार किया । धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण को उनकी सेना, सेवक, मन्त्री और पत्नियों के साथ ऐसे स्थान में ठहराया जहाँ उन्हें नित्य नयी-नयी सुख की सामग्रियाँ प्राप्त हों । अर्जुन के साथ रहकर भगवान श्रीकृष्ण ने खाण्डव वन का दाह करवाकर अग्नि को तृप्त किया था और मयासुर को उससे बचाया था। परीक्षित्! उस मयासुर ने ही धर्मराज युधिष्ठिर के लिये भगवान की आज्ञा से एक दिव्य सभा तैयार कर दी ।भगवान श्रीकृष्ण राजा युधिष्ठिर को आनन्दित करने के लिये कई महीनों तक इन्द्रप्रस्थ में ही रहे। वे समय-समय पर अर्जुन के साथ रथ पर सवार होकर विहार करने के लिये इधर-उधर चले जाया करते थे। उस समय बड़े-बड़े वीर सैनिक भी उनकी सेवा के लिये साथ-साथ जाते ।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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