श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 72 श्लोक 13-24

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

दशम स्कन्ध: द्विसप्ततितमोऽध्यायः(72) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्विसप्ततितमोऽध्यायः श्लोक 13-24 का हिन्दी अनुवाद


धर्मराज युधिष्ठिर ने सृंजयवंशी वीरों के साथ सहदेव को दक्षिण दिशा में दिग्विजय करने के लिये भेजा। नकुल को मत्स्यदेशीय वीरों के साथ पश्चिम में, अर्जुन को केकयदेशीय वीरों के साथ उत्तर में और भीमसेन को मद्रदेशीय वीरों के साथ पूर्व दिशा में दिग्विजय करने का आदेश दिया । परीक्षित्! उन भीमसेन आदि वीरों ने अपने बल-पौरुष से सब ओर के नरपतियों को जीत लिया और यज्ञ करने के लिये उद्दत महाराज युधिष्ठिर को बहुत-सा धन लाकर दिया । जब महाराज युधिष्ठिर ने यह सुना कि अब तक जरासन्ध पर विजय नहीं प्राप्त की जा सकी, तब वे चिन्ता में पड़ गये। उस समय भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें वही उपाय कह सुनाया, जो उद्धवजी ने बतलाया था । परीक्षित्! इसके बाद भीमसेन, अर्जुन और भगवान श्रीकृष्ण—ये तीनों ही ब्राम्हण का वेष धारण करके गिरीव्रज गये। वही जरासन्ध की राजधानी थी । राजा जरासन्ध ब्राम्हणों का भक्त और ग्रहस्थोचित धर्मों का पालन करने वाला था। उपर्युक्त तीनों क्षत्रिय ब्राम्हण का वेष धारण करके अतिथि-अभ्यागतों के सत्कार के समय जरासन्ध के पा गये और उससे इस प्रकार याचना की—

‘राजन्! आपका कल्याण हो। हम तीनों आपके अतिथि हैं और बहुत दूर से आ रहे हैं। अवश्य ही हम यहाँ किसी विशेष प्रयोजन से ही आये हैं। इसलिये हम आपसे जो कुछ चाहते हैं, वह आप हमें अवश्य दीजिये । तितिक्षु, पुरुष क्या नहीं सह सकते। दुष्ट पुरुष बुरा-से-बुरा क्या नहीं कर सकते। उदार पुरुष क्या नहीं दे सकते और समदर्शी के लिये पराया कौन है ? जो पुरुष स्वयं समर्थ होकर भी इस नाश्वान् शरीर से ऐसे अविनाशी यश का संग्रह नहीं करता, जिसका बड़े-बड़े सत्पुरुष भी गान करें; सच पूछिये तो उसकी जितनी निन्दा की जाय, थोड़ी है। उसका जीवन शोक करने योग्य है । राजन्! आप तो जानते ही होंगे—राजा हरिश्चन्द्र, रन्तिदेव, केवल अन्न के दाने बीच-चुनकर निर्वाह करने वाले महात्मा मुद्गल, शिबी, बलि, व्याध और कपोत आदि बहुत-से व्यक्ति अतिथि को अपना सर्वस्व देकर इस नाशवान् शरीर के द्वारा अविनाशी पद को प्राप्त हो चुके हैं। इसलिये आप भी हम लोगों को निराश मत कीजिये । श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जरासन्ध ने उन लोगों की आवाज, सूरत-शकल और कलाइयों पर पड़े हुए धनुष की रगड़ के चिन्हों को देखकर पहचान लिया कि ये तो ब्राम्हण नहीं, क्षत्रिय हैं। अब वह सोचने लगा कि मैंने कहीं-न-कहीं इन्हें देखा भी अवश्य है । फिर उसने मन-ही-मन यह विचार किया कि ‘ये क्षत्रिय होने पर भी मेरे भय से ब्राम्हण का वेष बनाकर आये हैं। जब ये भिक्षा माँगने पर ही उतारू हो गये हैं, तब चाहे जो कुछ माँग लें, मैं इन्हें दूँगा। याचना करने पर अपना अत्यन्त प्यारा और दुस्त्यज शरीर देने में भी मुझे हिचकिचाहट न होगी । विष्णु भगवान ने ब्राम्हण का वेष धारण करके बलि का धन, ऐश्वर्य—सब कुछ छीन लिया; फिर भी बलि की पवित्र कीर्ति सब ओर फैली हुई है और आज भी लोग बड़े आदर से उसका गान करते हैं ।




« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-