श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 85 श्लोक 38-51

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दशम स्कन्ध: पञ्चाशीतितमोऽध्यायः(85) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पञ्चाशीतितमोऽध्यायः श्लोक 38-51 का हिन्दी अनुवाद


परीक्षित्! दैत्यराज बलि बार-बार भगवान के चरणकमलों को अपने वक्षःस्थल और सिर पर रखने लगे, उनका ह्रदय प्रेम से विह्वल हो गया। नेत्रों से आनन्द के आँसू बहने लगे। रोम-रोम खिल उठा। अब वे गद्गद स्वर से भगवान की स्तुति करने लगे | दैत्यराज बलि ने कहा—बलरामजी! आप अनन्त हैं। आप इतने महान् हैं की शेष आदि सभी विग्रह आपके अन्तर्भूत हैं। सच्चिदानन्दस्वरुप श्रीकृष्ण! आप सकल जगत् के निर्माता हैं। ज्ञानयोग और भक्तियोग दोनों के प्रवर्तक आप ही हैं। आप स्वयं ही परब्रम्ह परमात्मा हैं। हम आप दोनों को बार-बार नमस्कार करते हैं | भगवन्! आप दोनों का दर्शन प्राणियों के लिये अत्यन्त दुर्लभ है। फिर भी आपकी कृपा से वह सुलभ हो जाता है। क्योंकि आज आपने कृपा करके हम रजोगुणी एवं तमोगुणी स्वभाव वाले दैत्यों को भी दर्शन दिया है | प्रभो! हम और हमारे ही समान दूसरे दैत्य, दानव, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर, चारण, यक्ष, राक्षस, पिशाच, भूत और प्रमथनायक आदि आपका प्रेम से भजन करना तो दूर रहा, आपसे सर्वदा दृढ़ वैरभाव रखते हैं; परन्तु आपका श्रीविग्रह साक्षात् वेदमय और विशुद्ध सत्वस्वरुप है। इसलिये हम लोगों में से बहुतों ने दृढ़ वैरभाव से, कुछ ने भक्ति से और कुछ ने कामना से आपका स्मरण करके उस पद को प्राप्त किया है, जिसे आपके समीप रहने वाले सत्वप्रधान देवता आदि भी नहीं प्राप्त कर सकते । योगेश्वरों के अधीश्वर! बड़े-बड़े योगेश्वर भी प्रायः यह बात नहीं जानते कि आपकी योगमाया यह है और ऐसी है; फिर हमारी तो बात ही क्या है ? इसलिये स्वामी! मुझ पर ऐसी कृपा कीजिये कि मेरी चित्त-वृत्ति आपके उन चरणकमलों में लग जाय, जिसे किसी की अपेक्षा न रखने वाले परमहंस लोग ढूंढा करते हैं; और उनका आश्रय लेकर मैं उससे भिन्न इस घर-गृहस्थी के अँधेरे कूएँ से निकल जाऊँ। प्रभो! इस प्रकार आपके उन चरणकमलों की, जो सारे जगत् के एकमात्र आश्रय हैं, शरण लेकर शान्त हो जाऊँ और अकेला ही विचरण करूँ। यदि कभी किसी का संग करना ही पड़े तो सबके परम हितैषी संतो का ही । प्रभो! आप समस्त चराचर जगत् के नियन्ता और स्वामी हैं। आप हमें आज्ञा देकर निष्पाप बनाइये, हमारे पापों का नाश कर दीजिये; क्योंकि जो पुरुष श्रद्धा के साथ आपकी आज्ञा का पालन करता है, वह विधि-निषेध के बन्धन से मुक्त हो जाता है । भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—‘दैत्यराज! स्वायम्भुव मन्वन्तर में प्रजापति मरीचि की पत्नी उर्णा के गर्भ से छः पुत्र उत्पन्न हुए थे। वे सभी देवता थे। वे यह देखकर की ब्रम्हाजी अपनी पुत्री से समागम करने के लिये उद्दत हैं, हँसने लगे । इस परिहासरूप अपराध के कारण उन्हें ब्रम्हाजी ने शाप दे दिया और वे असुर-योनि में हिरण्यकशिपु के पुत्र रूप से उत्पन्न हुए। अब योगमाया ने उन्हें वहाँ से लाकर देवकी के गर्भ में रख दिया और उनको उत्पन्न होते ही कंस ने मार डाला। दैत्यराज! माता देवकीजी अपने उन पुत्रों के लिये अत्यन्त शोकातुर हो रही हैं और वे तुम्हारे पास हैं । अतः हम अपनी माता का शोक दूर करने के लिये उन्हें यहाँ से ले जायँगे। इसके बाद ये शाप से मुक्त हो जायँगे और आनन्दपूर्वक अपने लोक में चले जायँगे । इनके छः नाम हैं—स्मर, उद्गीथ, परिष्वंग, पतंग, क्षुद्रभृत् और घृणि। उन्हें मेरी कृपा से पुनः सद्गति पाप्त होगी’ ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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