श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 10 श्लोक 12-25
द्वादश स्कन्ध: दशमोऽध्यायः (10)
शरीर पर बाघम्बर धारण किये हुए हैं और हाथों में शूल, खट्वांग, ढाल, रुद्राक्ष-माला, डमरू, खप्पर, तलवार और धनुष लिये हैं । मार्कण्डेय मुनि अपने ह्रदय में अकस्मात् भगवान शंकर का यह रूप देखकर विस्मित हो गये। ‘यह क्या है ? कहाँ से आया ?’ इस प्रकार की वृत्तियों का उदय हो जाने से उन्होंने अपनी समाधि खोल दी । जब उन्होंने ऑंखें खोलीं, तब देखा कि तीनों लोकों के एकमात्र गुरु भगवान शंकर श्रीपार्वतीजी तथा अपने गणों के साथ पधारे हुए हैं। उन्होंने उनके चरणों में माथा टेककर प्रणाम किया । तदनन्तर मार्कण्डेय मुनि ने स्वागत, आसन, पाद्य, अर्घ्य, गन्ध,, पुष्पमाला, धूप और दीप आदि उपचारों से भगवान शंकर, भगवती पार्वती और उनके गणों की पूजा की । इसके पश्चात् मार्कण्डेय मुनि उनसे कहने लगे—‘सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान् प्रभो! आप अपनी आत्मानुभूति और महिमा से ही पूर्णकाम हैं। आपकी शान्ति और सुख से ही सारे जगत् में सुख-शान्ति का विस्तार हो रहा है, ऐसी अवस्था में मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? मैं आपके त्रिगुणातीत सदाशिव स्वरुप को और सत्वगुण से युक्त शान्त-स्वरुप को नमस्कार करता हूँ। मैं आपके रजोगुण युक्त सर्वप्रवर्तक स्वरुप एवं तमोगुण युक्त अघोर स्वरुप को नमस्कार करता हूँ’ । सूतजी कहते हैं—शौनकजी! जब मार्कण्डेय मुनि ने संतों के परम आश्रय देवाधिदेव भगवान शंकर की इस प्रकार स्तुति की, तब वे उनपर अत्यन्त सन्तुष्ट हुए और बड़े प्रसन्नचित से हँसते हुए कहने लगे । भगवान शंकर ने कहा—मार्कण्डेय! ब्रम्हा, विष्णु तथा मैं—हम तीनों ही वर दाताओं के स्वामी हैं, हम लोगों का दर्शन कभी व्यर्थ नहीं जाता। हम लोगों से ही मरणशील मनुष्य भी अमृतत्व की प्राप्ति कर लेता है। इसलिये तुम्हारी जो इच्छा हो, वही वर मुझसे माँग लो । ब्राम्हण स्वभाव से ही परोपकारी, शान्तचित्त एवं अनासक्त होते हैं। वे किसी के साथ वैरभाव नहीं रखते और समदर्शी होने पर भी प्राणियों का कष्ट देखकर उसके निवारण के लिये पुरे ह्रदय से जुट जाते हैं। उनकी सबसे बड़ी विशेषता तो यह होती है कि वे हमारे अनन्य प्रेमी एवं भक्त होते हैं । सारे लोक और लोकपाल ऐसे ब्राम्हणों की वन्दना, पूजा और उपासना किया करते हैं। केवल वे ही क्यों; मैं, भगवान ब्रम्हा तथा स्वयं साक्षात् ईश्वर विष्णु भी उनकी सेवा में संलग्न रहते हैं । ऐसे शान्त महापुरुष मुझमें, विष्णु भगवान में, ब्रम्हा में, अपने में और सब जीवों में अणुमात्र भी भेद नहीं देखते। सदा-सर्वदा,, सर्वत्र और सर्वथा एकरस आत्मा का ही दर्शन करते हैं। इसलिये हम तुम्हारे-जैसे महात्माओं की स्तुति और सेवा करते हैं । मार्कण्डेयजी! केवल जलमय तीर्थ ही तीर्थ नहीं होते तथा केवल जड़ मूर्तियाँ ही देवता नहीं होतीं। सबसे बड़े तीर्थ और देवता तो तुम्हारे-जैसे संत हैं; क्योंकि वे तीर्थ और देवता बहुत दिनों में पवित्र करते हैं, परन्तु तुम लोग दर्शन मात्र से ही पवित्र कर देते हो । हम लोग तो ब्राम्हणों को ही नमस्कार करते हैं; क्योंकि वे चित्त की एकाग्रता, तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधि के द्वारा हमारे वेदमय शरीर को धारण करते हैं । मार्कण्डेयजी! बड़े-बड़े महापापी और अन्त्यज भी तुम्हारे-जैसे महापुरुषों के चरित्र श्रवण और दर्शन से ही शुद्ध हो जाते हैं; फिर वे तुम लोगों के सम्भाषण और सहवास आदि से शुद्ध हो जायँ, इसमें तो कहना ही क्या है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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