श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 12 श्लोक 58-68

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द्वादश स्कन्ध: द्वादशोऽध्यायः (12)

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: द्वादशोऽध्यायः श्लोक 58-68 का हिन्दी अनुवाद

जो मनुष्य एकाग्रचित्त से एक पहर अथवा एक क्षण ही प्रतिदिन इसका कीर्तन करता है और जो श्रद्धा के साथ इसका श्रवण करता है, वह अवश्य ही शरीर सहित अपने अन्तःकरण को पवित्र बना लेता है । जो पुरुष द्वादशी अथवा एकादशी के दिन इसका श्रवण करता है, वह दीर्घायु हो जाता है और जो सयंम पूर्वक निराहार रहकर पाठ करता है, उसके पहले के पाप तो नष्ट हो ही जाते हैं, पाप की प्रवृत्ति भी नष्ट हो जाती है । जो मनुष्य इन्द्रियों और अन्तःकरण को अपने वश में करके उपवास पूर्वक पुष्कर, मथुरा अथवा द्वारका में इस पुराण संहिता का पाठ करता है, वह सारे भयों से मुक्त हो जाता है । जो मनुष्य इसका श्रवण या उच्चारण करता है, उसके कीर्तन से देवता, मुनि, सिद्ध, पितर, मनु और नरपति सन्तुष्ट होते हैं और उसकी अभिलाषाएँ पूर्ण करते हैं । ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के पाठ से ब्राम्हण को मधुकुल्या, घृतकल्या और पयःकुल्या (मधु, घी एवं दूध की नदियाँ अर्थात् सब प्रकार की सुख-समृद्धि) की प्राप्ति होती है। वही फल श्रीमद्भागवत के पाठ से भी मिलता है । जो द्विज संयम पूर्वक इस पुराण संहिता का अध्ययन करता है, उसे उसी परमपद की प्राप्ति होती है, जिसका वर्णन स्वयं भगवान ने किया है । इसके अध्ययन से ब्राम्हण को ऋतम्भरा प्रज्ञा (तत्वज्ञान को प्राप्त कराने वाली बुद्धि) की प्राप्ति होती है और क्षत्रिय को समुद्र पर्यन्त भूमण्डल का राज्य होता है। वैश्य कुबेर का पद प्राप्त करता है और शूद्र सारे पापों से छुटकारा पा जाता है । भगवान ही सबके स्वामी हैं और समूह-के-समूह कलिमलों को ध्वंस करने वाले हैं। यों तो उनका वर्णन करने के लिये बहुत-से पुराण हैं, परन्तु उनमें सर्वत्र और निरन्तर भगवान का वर्णन नहीं मिलता। श्रीमद्भागवत-महापुराण में तो प्रत्येक कथा-प्रसंग में पद-पद पर सर्वस्वरुप भगवान का ही वर्णन हुआ है। वे जन्म-मृत्यु आदि विकारों से रहित, देश कालादि कृत परिच्छेदों से मुक्त एवं स्वयं आत्मतत्व ही हैं। जगत् की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय करने वाली शक्तियाँ भी उनकी स्वरुपभूत ही हैं, भिन्न नहीं। ब्रम्हा, शंकर, इन्द्र आदि लोकपाल भी उनकी स्तुति करना लेशमात्र भी नहीं जानते। उन्हीं एकरस सच्चिदानन्द स्वरुप परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ । जिन्होंने अपने स्वरुप में ही प्रकृति आदि नौ शक्तियों का संकल्प करके इस चराचर जगत् की सृष्टि की है और जो इसके अधिष्ठान रुप से स्थित हैं तथा जिनका परम पद केवल अनुभूतिस्वरुप है, उन्हीं देवताओं के आराध्यदेव सनातन भगवान के चरणों में मैं नमस्कार करता हूँ । श्रीशुकदेवजी महाराज अपने आत्मानन्द में ही निमग्न थे। इस अखण्ड अद्वैत स्थिति से उनकी भेददृष्टि सर्वथा निवृत्त हो चुकी थी। फिर भी मुरली मनोहर श्यामसुन्दर की मधुमयी, मंगलमयी, मनोहारिणी लीलाओं ने उनकी वृत्तियों को अपनी ओर आकर्षित कर लिया और उन्होंने जगत् के प्राणियों पर कृपा करके भगवततत्व को प्रकाशित करने वाले इस महापुराण का विस्तार किया। मैं उन्हीं सर्वपापहारी व्यासनन्दन भगवान श्रीशुकदेवजी के चरणों में नमस्कार करता हूँ ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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