श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 4 श्लोक 26-34
द्वादश स्कन्ध: चतुर्थोऽध्यायः (4)
यह विश्व उत्पत्ति और प्रलय से ग्रस्त है; इसलिये अनेक अवयवों का समूह अवयवी है। अतः यह कभी ब्रम्ह में होता और कभी नहीं होता, ठीक वैसे ही जैसे आकाश में मेघमाला कभी होती है और कभी नहीं होती । परीक्षित्! जगत् के व्यवहार में जितने भी अवयवी पदार्थ होते हैं, उनके न होने पर भी उनके भिन्न-भिन्न अवयव सत्य माने जाते हैं। क्योंकि वे उनके कारण है। जैसे वस्त्ररूप अवयवी के न होने पर भी उसके कारणरूप सूत का अस्तित्व माना ही जाता है, उसी प्रकार कार्यरूप जगत् के अभाव में भी इस जगत् के कारणरूप अवयव की स्थिति हो सकती है । परन्तु ब्रम्ह में यह कार्य-कारण भाव भी वास्तविक नहीं है। क्योंकि देखो, कारण तो सामान्य वस्तु है और कार्य विशेष वस्तु। इस प्रकार का जो भेद दिखायी देता है, वह केवल भ्रम ही है। इसका हेतु यह है कि सामान्य और विशेष भाव आपेक्षिक हैं, अन्योन्याश्रित हैं। विशेष के बिना समान्य और सामान्य के बिना विशेष की स्थिति नहीं हो सकती। कार्य और कारण भाव का आदि और अन्त दोनों ही मिलते हैं, इसलिये भी वह स्वाप्निक भेद-भाव के समान सर्वथा अवस्तु है । इसमें सन्देह नहीं कि यह प्रपंचरूप विकार स्वाप्निक विकार के समान ही प्रतीति हो रहा है, तो भी यह अपने अधिष्ठान ब्रम्हस्वरुप आत्मा से भिन्न नहीं है। कोई चाहे भी तो आत्मा से भिन्न रूप में अणुमात्र भी इसका निरूपण नहीं कर सकता। यदि आत्मा से पृथक् इसकी सत्ता मानी भी जाय तो यह भी चिद्रूप आत्मा के समान स्वयंप्रकाश होगा, और ऐसी स्थिति में वह आत्मा की भाँति ही एकरूप सिद्ध होगा । परन्तु इतना तो सर्वथा निश्चित है कि परमार्थ-सत्य वस्तु में नानात्व नहीं है। यदि कोई अज्ञानी परमार्थ-सत्य वस्तु में नानात्व स्वीकार करता है, तो उसका वह मानना वैसा ही है, जैसा महाप्रकाश और घटाकाश का, आकाशास्थित सूर्य और जल में प्रतिबिम्बित सूर्य का तथा बाह वायु और आन्तर वायु का भेद मानना । जैसे व्यवहार में मनुष्य एक ही सोने को अनेकों रूपों में गढ़-गलाकर तैयार कर लेते हैं और वह कंगन, कुण्डल, कड़ा आदि अनेकों रूपों में मिलता है; इसी प्रकार व्यवहार में निपुण विद्वान् लौकिक और वैदिक वाणी के द्वारा इन्द्रियातीत आत्मस्वरुप भगवान का भी अनेकों रूपों में वर्णन करते हैं । देखो न, बादल सूर्य से उत्पन्न होता है और सूर्य से ही प्रकाशित। फिर भी वह सूर्य के ही अंश नेत्रों के लिये सूर्य का दर्शन होने में बाधक बन बैठता है। इसी पराक्र अहंकार भी ब्रम्ह से ही उत्पन्न होता, ब्रम्ह से ही प्रकाशित होता और ब्रम्ह के अंश जीव के लिये ब्रम्हस्वरुप के साक्षात्कार में बाधक बन बैठता है । जब सूर्य से प्रकट होने वाला बादल तितर-बितर हो जाता है, तब नेत्र अपने स्वरुप सूर्य का दर्शन करने में समर्थ होते हैं। ठीक वैसे ही, जब जीव के ह्रदय में जिज्ञासा जगती है, तब आत्मा की उपाधि अहंकार नष्ट हो जाता है और उसे अपने स्वरुप का साक्षात्कार हो जाता है । प्रिय परीक्षित्! जब जीव विवेक के खड्ग से मायामय अहंकार का बन्धन काट देता है, तब यह अपने एकरस आत्मस्वरुप के साक्षात्कार में स्थित हो जाता है। आत्मा की यह माया मुक्ति वास्तविक स्थिति ही आत्यन्तिक प्रलय कही जाती है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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