श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 64-74
द्वादश स्कन्ध: षष्ठोऽध्यायः (6)
याज्ञवल्क्यजी देवरात के पुत्र थे। उन्होंने गुरूजी की आज्ञा पाते ही उनके पढ़ाये हुए यजुर्वेद का वमन कर दिया और वे वहाँ से चले गये। जब मुनियों ने देखा कि याज्ञवल्क्य ने तो यजुर्वेद का वमन कर दिया, तब उनके चित्त में इस बात के लिये बड़ा लालच हुआ कि हम लोग किसी प्रकार इसको ग्रहण कर लें। परन्तु ब्राम्हण होकर उगले हुए मन्त्रों को ग्रहण करना अनुचित है, ऐसा सोचकर वे तीतर बन गये और उस सहिंता को चुग लिया। इसी से यजुर्वेद की वह परम रमणीय शाखा ‘तत्तिरिय’ के नाम से प्रसिद्ध हुई । शौनकजी! अब याज्ञवल्क्य ने सोचा कि मैं ऐसी श्रुतियाँ प्राप्त करूँ, जो मेरे गुरूजी के पास भी न हों। इसके लिये वे सूर्य भगवान का उपस्थान करने लगे । याज्ञवल्क्यजी इस प्रकार उपस्थान करते हैं—मैं ॐकार स्वरुप भगवान सूर्य को नमस्कार करता हूँ। आप सम्पूर्ण जगत् के आत्मा और कालस्वरुप हैं। ब्रम्हा से लेकर तृणपर्यन्त जितने भी जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज—चार प्रकार के प्राणी हैं, उन सबके ह्रदय देश में और बाहर आकाश के समान व्याप्त रहकर भी आप उपाधि के धर्मों से असंग रहने वाले अद्वितीय भगवान ही हैं। आप ही क्षण, लव, निमेष आदि अवयवों से संघटित संवत्सरों के द्वारा एवं जल के आकर्षण-विकर्षण—आदान-प्रदान के द्वारा समस्त लोकों की जीवन यात्रा चलाते हैं । प्रभो! आप समस्त देवताओं में श्रेष्ठ हैं। जो लोग प्रतिदिन तीनों समय वेद-विधि से आपकी उपासना करते हैं, उनके सारे पाप और दुःखों के बीजों को आप भस्म कर देते हैं। सूर्यदेव! आप सारी सृष्टि के मूल कारण एवं समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी हैं। इसलिये हम आपके इस तेजोमय मण्डल का पूरी एकाग्रता के साथ ध्यान करते हैं । आप सबके आत्मा और अन्तर्यामी हैं। जगत् में जितने चराचर प्राणी हैं, सब आपके ही आश्रित हैं। आप ही उनके अचेतन मन, इन्द्रिय और प्राणों के प्रेरक हैं । यह लोक प्रतिदिन अन्धकार रूप अजगर के विकराल मुँह में पड़कर अचेत और मुर्दा-सा हो जाता है। आप परम करुणास्वरुप हैं, इसलिये कृपा करके अपनी दृष्टिमात्र से ही इसे सचेत कर देते हैं और परम कल्याण के साधन समय-समय के धर्मानुष्ठानों में लगाकर आत्माभिमुख करते हैं। जैसे राजा दुष्टों को भयभीत करता हुआ अपने राज्य में विचरण करता है, वैसे ही आप चोर-जार आदि दुष्टों को भयभीत करते हुए विचरते रहते हैं । चारों ओर सभी दिक्पाल स्थान-स्थान पर अपनी कमल की कली के समान अंजलियों से आपको उपहार समर्पित करते हैं । भगवन्! आपके दोनों चरणकमल तीनों लोकों के गुरु-सदृश महानुभावों से भी वन्दित हैं। मैंने आपके युगल चरणकमलों की इसलिये शरण ली है कि मुझे ऐसे यजुर्वेद की प्राप्ति हो, जो अब तक किसी को न मिला हो । सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियों! जब याज्ञवल्क्य मुनि ने भगवान सूर्य की इस प्रकार स्तुति की, तब वे प्रसन्न होकर उनके सामने अश्वरूप से प्रकट हुए और उन्हें यजुर्वेद के उन मन्त्रों का उपदेश किया, जो अब तक किसी को प्राप्त न हुए थे । इसके बाद याज्ञवल्क्य मुनि ने यजुर्वेद के असंख्य मन्त्रों से उसकी पंद्रह शाखाओं की रचना की। वही वाजसनेय शाखा के नाम से प्रसिद्ध हैं। उन्हें कण्व, माध्यन्दिन आदि ऋषियों ने ग्रहण किया ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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