श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 4 श्लोक 1-13
द्वितीय स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः (4)
सूतजी कहते हैं—शुकदेवजी के वचन भगवतत्व का निश्चय कराने वाले थे। उत्तरानन्दन राजा परीक्षित् ने उन्हें सुनकर अपनी शुद्ध बुद्धि भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में अनन्य भाव से समर्पित कर दी । शरीर, पत्नी, पुत्र, महल, पशु, धन, भाई-बन्धु और निष्कण्टक राज्य में नित्य के अभ्यास के कारण उनकी दृढ़ ममता हो गयी थी। एक क्षण में ही उन्होंने उस ममता का त्याग कर दिया । शौनकादि ऋषियों! महामनस्वी परीक्षित् ने अपनी मृत्यु का निश्चित समय जान लिया था। इसलिये उन्होंने धर्म, अर्थ और काम से सम्बन्ध रखने वाले जितने भी कर्म थे, उसका संन्यास कर दिया। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण में सुदृढ़ आत्मभाव को प्राप्त होकर बड़ी श्रद्धा से भगवान श्रीकृष्ण की महिमा सुनने के लिये उन्होंने श्रीशुकदेवजी से यही प्रश्न किया, जिसे आप-लोग मुझसे पूछ रहे हैं । परीक्षित् ने पूछा—भगवत्स्वरूप मुनिवर! आप परम पवित्र और सर्वज्ञ हैं। आपने जो कुछ कहा है, वह सत्य एवं उचित है। आप ज्यों-ज्यों भगवान की कथा कहते जा रहे हैं, त्यों-त्यों मेरे अज्ञान का परदा फटता जा रहा है । मैं आपसे फिर भी यह जानना चाहता हूँ कि भगवान अपनी माया से इस संसार की सृष्टि कैसे करते हैं। इस संसार की रचना तो इतनी रहस्यमयी है कि ब्रम्हादि समर्थ लोकपाल भी इसके समझने में भूल कर बैठते हैं । भगवान कैसे इस विश्व की रक्षा और फिर संहार करते हैं ? अनन्त शक्ति परमात्मा किन-किन शक्तियों का आश्रय लेकर अपने-आपको ही खिलौने बनाकर खेलते हैं ? वे बच्चों के बनाये हुए घरौंदों की तरह ब्रम्हाण्डो को कैसे बनाते हैं और फिर किस प्रकार बात-की-बात में मिटा देते हैं ? भगवान श्रीहरि की लीलाएँ बड़ी ही अद्भुत—अचिन्त्य हैं। इसमें संदेह नहीं कि बड़े-बड़े विद्वानों के लिये भी उनकी लीला का रहस्य समझना अत्यन्त कठिन प्रतीत होता है । भगवान तो अकेले ही हैं। वे बहुत-से कर्म करने के लिये पुरुष रूप से प्रकृति के विभिन्न गुणों को एक साथ ही धारण करते हैं अथवा अनेकों अवतार ग्रहण करके उन्हें क्रमश धारण करते हैं । मुनिवर! आप वेद और ब्रम्हतत्व दोनों के पूर्ण मर्मज्ञ हैं, इसलिये मेरे इस सन्देह का निवारण कीजिये । सूतजी कहते हैं—जब राजा परीक्षित् ने भगवान के गुणों का वर्णन करने के लिये उनसे इस प्रकार प्रार्थना की, तब श्रीशुकदेवजी ने भगवान श्रीकृष्ण का बार-बार स्मरण करके अपना प्रवचन प्रारम्भ किया । श्रीशुकदेवजी कहते हैं—उन पुरुषोत्तम भगवान के चरणकमलों में मेरे कोटि-कोटि प्रणाम हैं, जो संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय की लीला करने एक लिये सत्व, रज तथा तमोगुण रूप तीन शक्तियों को स्वीकार कर ब्रम्हा, विष्णु और शंकर का रूप धारण करते हैं; जो समस्त चर-अचर प्राणियों के ह्रदय में अन्तर्यामी रूप से विराजमान हैं, जिसका स्वरुप और उसकी उपलब्धि का मार्ग बुद्धि के विषय नहीं है; जो स्वयं अनन्त हैं तथा जिनकी महिमा भी अनन्त है । हम पुनः बार-बार उनके चरणों में नमस्कार करते हैं, जो सत्पुरुषों का दुःख मिटाकर उन्हें अपने प्रेम का दान करते हैं, दुष्टों की सांसारिक बढ़ती रोककर उन्हें मुक्ति देते हैं तथा जो लोग परमहंस आश्रम में स्थित हैं, उन्हें उनकी भी अभीष्ट वस्तु का दान करते हैं। क्योंकि चर-अचर समस्त प्राणी उन्हीं की मूर्ति हैं, इसलिये किसी से भी उनका पक्षपात नहीं है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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