श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 5 श्लोक 15-29
द्वितीय स्कन्ध:पञ्चम अध्यायः (5)
वेद नारायण के परायण हैं। देवता भी नारायण के ही अंगों में कल्पित हुए हैं और समस्त यज्ञ भी नारायण की प्रसन्नता के लिये ही हैं तथा उनसे जिन लोकों की प्राप्ति होती है, वे भी नारायण में ही कल्पित हैं । सब प्रकार के योग भी नारायण की प्राप्ति के ही हेतु हैं। सारी तपस्याएँ नारायण की ओर ही ले जाने वाली हैं, ज्ञान के द्वारा भी नारायण ही जाने जाते हैं। समस्त साध्य और साधकों का पर्यवसान भगवान नारायण ही हैं । वे द्रष्टा होने पर भी ईश्वर हैं, स्वामी हैं; निर्विकार होने पर भी सर्वस्वरुप हैं। उन्होंने ही मुझे बनाया है और उनकी दृष्टि से ही प्रेरित होकर मैं उनके इच्छानुसार सृष्टि-रचना करता हूँ । भगवान के माया के गुणों से रहित एवं अनन्त हैं। सृष्टि, स्थिति और प्रलय के लिये रजोगुण, सत्वगुण और तमोगुण—ये तीन गुण माया के द्वारा उनमें स्वीकार किये गये हैं । ये ही तीनों गुण द्रव्य, ज्ञान और क्रिया का आश्रय लेकर मायातीत नित्य मुक्त पुरुष को ही माया में स्थित होने पर कार्य, कारण और कर्तापन के अभिमान से बाँध लेते हैं । नारद! इन्द्रियातीत भगवान गुणों के इन तीन अवरणों से अपने स्वरुप को भलीभाँति ढक लेते हैं, इसलिये लोग उनको नहीं जान पाते। सारे संसार के और मेरे भी एकमात्र स्वामी वे ही हैं ।
मायापति भगवान ने एक से बहुत होने की इच्छा होने पर अपनी माया से अपने स्वरुप में स्वयं प्राप्त काल, कर्म और स्वभाव को स्वीकार कर लिया । भगवान की शक्ति से ही काल ने तीनों गुणों में क्षोभ उत्पन्न कर दिया, स्वभाव ने उन्हें रुपान्ततरित कर दिया और कर्म ने महतत्व को जन्म दिया । रजोगुण और सत्वगुण की वृद्धि होने पर महतत्व का जो विकार हुआ, उससे ज्ञान, क्रिया और द्रव्यरूप तमःप्रधान विकार हुआ । वह अहंकार कहलाया और विकार को प्राप्त होकर तीन प्रकार का हो गया। उसके भेद हैं—वैकारिक, तैजस और तामस। नारदजी! वे क्रमशः ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति और द्रव्यशक्ति प्रधान हैं । जब पंचमहाभूतों के कारणरूप तामस अहंकार में विकार हुआ, तब उससे आकाश की उत्पत्ति हुई। आकाश की तन्मात्रा और गुण शब्द हैं। इस शब्द के द्वारा ही द्रष्टा और दृश्य का बोध होता है । जब आकाश में विकार हुआ, तब उससे वायु की उत्पत्ति हुई; उसका गुण स्पर्श है। अपने कारण का गुण आ जाने से यह शब्द वाला भी है। इन्द्रियों में स्फूर्ति, शरीर में जीवनी शक्ति, ओर और बल इसी के रूप हैं । काल, कर्म और स्वभाव से वायु में भी विकार हुआ। उससे तेज की उत्पत्ति हुई। इसका प्रधान गुण रूप है। साथ ही इसके कारण आकाश और वायु के गुण शब्द एवं स्पर्श भी इसमें हैं । तेज के विकार से जल की उत्पत्ति हुई। इसका गुण है रस; कारण-तत्वों के गुण शब्द, स्पर्श और रूप भी इसमें हैं । जल के विकार से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई, इसका गुण है गन्ध। कारण के गुण कार्य में आते हैं—इस न्याय से शब्द, स्पर्श, रूप और रस—ये चारों गुण भी उसमें विद्यमान हैं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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