श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 10 श्लोक 17-28
प्रथम स्कन्धः दशम अध्यायः (10)
उन समय भगवान के प्रिय सखा घुँघराले बालों वाले अर्जुन ने अपने प्रियतम श्रीकृष्ण का वह श्वेत छत्र, जिसमें मोतियों की झालर लटक रही थी और जिसका डंडा रत्नों का बना हुआ था, अपने हाथ में ले लिया । उद्धव और सायकि बड़े विचित्र चँवर डुलाने लगे। मार्ग में भगवान श्रीकृष्ण पर चारों ओर से पुष्पों की वर्षा हो रही थी। बड़ी ही मधुर झाँकी थी । जहाँ-तहाँ ब्राम्हणों के दिये हुए सत्य आशीर्वाद सुनायी पड़ रहे थे। वे सगुण भगवान के तो अनुरूप ही थे; क्योंकि उनमें सब कुछ है, परन्तु निर्गुण के अनुरूप नहीं थे, क्योंकि उनमें कोई प्राकृत गुण नहीं है । हस्तिनापुर की कुलीन रमणियाँ, जिनका चित्त भगवान श्रीकृष्ण में रम गया था, आपस में ऐसी बातें कर रहीं थीं, जो सबके काल और मन को आकृष्ट कर रहीं थीं । वे आपस में कह रही थीं—‘सखियों! ये वे ही सनातन परम पुरुष हैं, जो प्रलय के समय भी अपने अद्वितीय निर्विशेष स्वरुप में स्थित रहते हैं। उस समय सृष्टि के मूल ये तीनों गुण भी नहीं रहते। जगदात्मा ईश्वर में जीव भी लीन हो जाते हैं और महतत्वादि समस्त शक्तियाँ अपने कारण अव्यक्त में सो जाती हैं । उन्होंने ही फिर अपने नाम-रूपरहित स्वरुप में नाम रूप के निर्माण की इच्छा की तथा अपनी काल-शक्ति से प्रेरित प्रकृति का, जो कि उनके अंशभूत जीवों को मोहित कर लेती है और सृष्टि की रचना में प्रवृत्त रहती है, अनुसरण किया और व्यवहार के लिये वेदादि शास्त्रों की रचना की । इस जगत् में जिसके स्वरुप का साक्षात्कार जितेन्द्रिय योगी अपने प्राणों को वश में करके भक्ति से प्रफुल्ल्ति निर्मल ह्रदय में किया करते हैं, ये श्रीकृष्ण वही साक्षात् परब्रम्ह हैं। वास्तव में इन्हीं की भक्ति से अन्तःकरण की पूर्ण शुद्धि हो सकती है, योगादि के द्वारा नहीं । सखी! वास्तव में ये वही हैं, जिनकी सुन्दर लीलाओं का गायन वेदों में और दूसरे गोपनीय शास्त्रों में व्यासादि रहस्यवादी ऋषियों ने किया है—जो एक अद्वितीय ईश्वर हैं और अपनी लीला से जगत् की सृष्टि, पालन तथा संहार करते हैं, परन्तु उनमें आसक्त नहीं होते । जब तामसी बुद्धि वाले राजा अधर्म से अपना पेट पालने लगते हैं तब ये ही सत्वगुण को स्वीकार कर ऐश्वर्य, सत्य, ऋत, दया और यश प्रकट करते और संसार के कल्याण के लिये युग-युग में अनेकों अवतार धारण करते हैं । अहो! यह यदुवंश परम प्रशंसनीय है; क्योंकि लक्ष्मीपति पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने जन्म ग्रहण करके इस वंश को सम्मानित किया है। वह पवित्र मधुवन (ब्रजमण्डल) भी अत्यन्त धन्य है जिसे इन्होंने अपने शैशव एवं किशोरावस्था में घूम-फिरकर सुशोभित किया है । बड़े हर्ष की बात है कि द्वारका ने स्वर्ग के यश का तिरस्कार करके पृथ्वी के पवित्र यश को बढ़ाया है। क्यों न हो, वहाँ की प्रजा अपने स्वामी भगवान श्रीकृष्ण को जो बड़े प्रेम से मन्द-मन्द मुसकराते हुए उन्हें कृपा दृष्टि से देखते हैं, निरन्तर निहारती रहती हैं । सखी! जिनका इन्होंने पाणिग्रहण किया है उन स्त्रियों ने अवश्य ही व्रत, स्नान, हवन आदि के द्वारा इन परमात्मा की आराधना की होगी; क्योंकि वे बार-बार इनकी उस अधर-सुधा का पान करती हैं जिसके स्मरणमात्र से ही ब्रज बालाएँ आनन्द से मुर्च्छित हो जाया करती थीं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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