श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 18 श्लोक 28-42

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प्रथम स्कन्धः अष्टादश अध्यायः (18)

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः अष्टादश अध्यायः श्लोक 28-42 का हिन्दी अनुवाद
महाराज परीक्षित् के द्वारा कलियुग का दमन

जब राजा को वहाँ बैठने के लिये तिनके का आसन भी न मिला, किसी ने उन्हें पर भूमि पर भी बैठने को न कहा—अर्घ्य और आदर भरी मीठी बातें तो कहाँ से मिलतीं—तब अपने को अपमानित-सा मानकर वे क्रोध के वश हो गये । शौनकजी! वे भूख-प्यास से छटपटा रहे थे, इसलिये एकाएक उन्हें ब्राम्हण के प्रति ईर्ष्या और क्रोध हो आया। उनके जीवन में इस प्रकार का यह पहला ही अवसर था । वहाँ से लौटते समय उन्होंने क्रोध वश धनुष की नोक से एक मरा साँप उठाकर ऋषि के गले में डाल दिया और अपनी राजधानी में चले आये । उनके मन में यह बात आयी कि इन्होंने जो अपने नेत्र बंद कर रखे हैं, सो क्या वास्तव में इन्होंने अपनी सारी इन्द्रियवृत्तियों का निरोध कर लिया है अथवा इन राजाओं से हमारा क्या प्रयोजन है, यों सोचकर इन्होंने झूठ-मूठ समाधि का ढ़ोंग रच रखा है । उन शमीक मुनि का पुत्र बड़ा तेजस्वी था। वह दूसरे ऋषि कुमारों के साथ पास ही खेल रहा था। जब उस बालक ने सुना कि राजा मेरे पिता के साथ दुर्व्यवहार किया है, तब वह इस प्रकार कहने लगा— ‘ये नरपति कहलाने वाले लोग उच्छिष्ट भोजी कौओं के समान संड-मुसंड होकर कितना अन्याय करने लगे है! ब्राम्हणों के दास होकर भी ये दरवाजे पर पहरा देने वाले कुत्ते के समान अपने स्वामी का ही तिरस्कार करते हैं । ब्राम्हणों ने क्षत्रियों को अपना द्वारपाल बनाया है। उन्हें द्वार पर रहकर रक्षा करनी चाहिये, घर में घुसकर स्वामी के बर्तनों में खाने का उसे अधिकार नहीं है । अतएव उन्मार्गगामीयों के शासक भगवान श्रीकृष्ण के परमधाम जाने पर इन मर्यादा तोड़ने वालों को आज मैं दण्ड देता हूँ। मेरा तपोबल देखो’। अपने साथी बालकों से इस प्रकार कहकर क्रोध से लाल-लाल आँखों वाले उस ऋषि कुमार ने कौशिकी नदी के जल से आचमन करके अपने वाणी-रूपी वज्र का प्रयोग किया । ‘कुलांगार परीक्षित् ने मेरे पिता का अपमान करके मर्यादा का उल्लंघन किया है, इसलिये मेरी प्रेरणा से आज के सातवें दिन उसे तक्षक सर्प डस लेगा’। इसके बाद वह बालक अपने आश्रम पर आया और अपने पिता के गले में साँप देखकर उसे बड़ा दुःख हुआ तथा वह ढाड़ मारकर रोने लगा । विप्रवर शौनकजी! शमीक मुनि ने अपने पुत्र का रोना-चिल्लाना सुनकर धीरे-धीरे अपनी आँखें खोली और देखा कि उनके गले में एक मरा साँप पड़ा है । उसे फेंककर उन्होंने अपने पुत्र से पूछा—‘बेटा! तुम क्यों रो रहे हो ? किसने तुम्हारा अपकार किया है ?’ उनके इस प्रकार पूछने पर बालक ने सारा हाल कह दिया । ब्रम्हर्षि शमीक ने राजा के शाप की बात सुनकर अपने पुत्र का अभिनन्दन नहीं किया। उनकी दृष्टि में परीक्षित् शाप के योग्य नहीं थे। उन्होंने कहा—‘ओह, मूर्ख बालक! तूने बड़ा पाप किया! खेद है कि उनकी थोड़ी-सी गलती के लिये तूने उनको इतना बड़ा दण्ड दिया । तेरी बुद्धि अभी कच्ची है। तुझे भगवत्स्वरूप राजा को साधारण मनुष्यों के समान नहीं समझना चाहिये; क्योंकि राजा के दुस्सह तेज से सुरक्षित और निर्भय रहकर ही प्रजा अपना कल्याण सम्पादन करती है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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