हरिवंश राय बच्चन का काव्य
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प्रोफेसर महावीर सरन जैन का आलेख : बच्चन के काव्य में निहित मानवीय दृष्टि एवं सामाजिक चेतना
बच्चन के काव्य में निहित मानवीय दृष्टि एवं सामाजिक चेतना को आत्मसात् करने के पहले हिन्दी छायावादी काव्य के सम्बंध में दो शब्द कहना जरूरी है। मैं सम्प्रति यह कहना चाहता हूँ कि हिन्दी का छायावादी काव्य न तो पाश्चात्य रोमांटिक काव्य का अनुकरण है और न केवल अभिव्यक्ति की एक लाक्षिक प्रणाली है, जैसा हिन्दी के कुछ आलोचकों एवं विद्वानों नें माना हेै। यह काव्य भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के उद्दाम आवेग से उद्भूत प्रभावी एवं व्यापक नवजागरण तथा कर्मवीर एवं पुरुषार्थी मानवीय आस्था का जयगान है। मेरा मानना है कि इसी पृष्ठभूमि में छायावादोत्तर युग में रामधारी सिंह दिनकर, माखनलाल चतुर्वेदी, हरिवंश राय बच्चन, शिवमंगल सिंह सुमन तथा रामेश्वर शुक्ल अंचल आदि कवियों ने हिन्दी साहित्य की काव्य धारा को प्रवाहमान बनाने में योगदान दिया है।
जिन आलोचकों ने बच्चन के काव्य को ‘ एक स्वप्निल शक्ति का प्रवाह भर ' मानकर उनके काव्य में ‘ नैतिक विज.न का विलयन ' देखकर उस पर ‘ अपराजेय विवशता ' का लेबिल चस्पा कर दिया है, उनसे मैं सहमत नहीं हूँ। ऐसे आलोचकों से भिन्न कविवर सुमित्रानंदन पंत ने बच्चन के बारे में जो अभिव्यक्त किया था उसे मैं सत्य के अधिक निकट पाता हूँ। पंत ने बच्चन के बारे में लिखा था कि - ‘ बच्चन मुख्यतः मानव भावना, अनुभूति, प्राणों की ज्वाला तथा जीवन संघर्ष का आत्मनिष्ठ कवि है।'
कुछ आलोचकों की मान्यता अथवा धारणा है कि बच्चन ने तो ‘ झूमते उन्मत्तता से सुरा के गान गाए हैं '; ‘बच्चन तो नारी सौन्दर्य के आसपास चक्कर लगाते ही नज.र आते हैं ' ऐसे में बच्चन को जीवन संघर्ष का कवि किस प्रकार माना जा सकता है? मैं इस बात से तो सहमत हूँ कि बच्चन ने मानवीय प्रेम को केवल मानसिक / आत्मिक ही नहीं माना है; यह भी मुझे स्वीकार है कि बच्चन ने प्रेम को केवल भाव - भंगिमाओं के आदान प्रदान तक ही सीमित नहीं रखा है। मैं यह भी स्वीकार करने को तैयार हूँ कि वे उन्मुक्त प्रणय के लिए ‘ अधर रसपान ' की बेलाग घोषणा भी करते हैं। उनकी मधुशाला के काव्य - संसार में जिसने लालायित अधरों से हाला नहीं चूमी, हर्ष - विकंपित हाथों से मधु का प्याला नहीं छुआ, लज्जित साकी का हाथ पकड़ उसे अपने पास नहीं खींचा, उसने जीवन की मधुमय मधुशाला को व्यर्थ ही सुखा डाला । इसी जीवन दर्शन के कारण वे बिना किसी लाग लपेट के अपनी कामना की अभिव्यक्ति करते हैं -
आज सजीव बना लो प्रेयसि/ अपने अधरों का प्याला ॥
भर लो - भर लो - भर लो इसमें, यौवन मधुरस की हाला।
और लगा लो मेरे अधरों से, भूल हटाना तुम जाओ॥
अथक बनूँ मैं पीने वाला, खुले प्रणय की मधुशाला ॥
प्रणय में देह का परित्याग नहीं है केवल इसी कारण वह जीवन के लिए प्रासंगिक, समीचीन एवं सार्थक नहीं हो सकता - इससे न केवल बच्चन का अपितु उनके समकालीन अन्य कवियों की भी सहमति नहीं है। इस प्रकार के जीवन दर्शन में इनका विश्वास नहीं है और मैं समझता हूँ कि यही विश्वास एवं धारणा उन्हें छायावादी काव्य- चेतना से अलगा देती है। बच्चन की मधुशाला ने लोक प्रियता एवं लोक रंजन के जो कीर्तिमान स्थापित किए उसका ठीक ठीक अहसास उस को सहज हो सकता है जिसे अपने जीवन काल में बच्चन को कवि सम्मेलन में मधुशाला का काव्य पाठ करते हुए सुनने एवं देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। पूरा लोक मोक्ष की वैराग्यपूर्ण साधना नहीं कर सकता। जीवन जिन्दादिली का पड़ाव है। ‘जितनी दिल की गहराई हो उतना गहरा है प्याला/ जितनी मन की मादकता हो उतनी मादक है हाला/ जितनी उर की भावुकता हो उतना ही साकी का सौन्दर्य है/ जितना ही जो रसिक, उसे है उतनी रसमय मधुशाला ' । बच्चन की मधुशाला माइकेल जेक्सन जेैसे पॉप सिंगर्स का आत्मघाती नशा नहीं है। उसमें दिल की गहराई जितनी गहराई है, मन की अथाह मादकता है, उर की अपार भावुकता है, सच्चे रसिक की आनंदपूर्ण रसमयता है। भारत की मनीषा जानती है कि आनन्द लोक की यात्रा अन्नमय लोक से ही आरम्भ होती है। ‘ साकी बन मुरली आई साथ लिए कर में प्याला/ जिनमें वह छलकाती लाई अधर- सुधा - रस की हाला / योगिराज कर संगत उसकी नटवर नागर कहलाए / देखो कैसें - कैसों को है नाच नचाती मधुशाला '।
मैंने अन्यत्र अपने ‘ भविष्य का धर्मः स्वरूप एवं प्रतिमान ' शीर्षक आलेख में विस्तार से इस तथ्य की मीमांसा की है कि किस प्रकार मध्ययुग में विकसित धर्म एवं दर्शन के परम्परागत स्वरूप एवं धारणाओं के प्रति आज के व्यक्ति की आस्था कम हो गई है। मध्ययुगीन धर्म एवं दर्शन के प्रमुख प्रतिमान थे - स्वर्ग की कल्पना, सृष्टि एवं जीवों के कर्ता रूप में ईश्वर की कल्पना, वर्तमान जीवन की निरर्थकता का बोध, अपने देश एवं काल की माया एवं प्रपंचों से परिपूर्ण अवधारणा। मध्ययुगीन चेतना के केन्द्र में ईश्वर का कर्तृत्व रूप प्रतिष्ठित था। अपने श्रेष्ठ आचरण, श्रम एवं पुरुषार्थ द्वारा अपने वर्तमान जीवन की समस्याओं का समाधान करने की ओर ध्यान कम था, अपने आराध्य की स्तुति एवं जयगान करने में ध्यान अधिक था। धर्म के व्याख्याताओं ने संसार के प्रत्येक क्रिया-कलाप को ईश्वर की इच्छा माना तथा मनुष्य को ईश्वर के हाथों की कठपुतली के रूप में स्वीकार किया। दार्शनिकों ने व्यक्ति के वर्तमान जीवन की विपन्नता का हेतु ‘कर्म-सिद्धान्त' के सूत्र में प्रतिपादित किया। इसकी परिणति मध्ययुग में यह हुई कि वर्तमान की सारी मुसीबतों का कारण ‘भाग्य' अथवा ईश्वर की मर्जी को मान लिया गया। धर्म के ठेकेदारों ने पुरुषार्थवादी-मार्ग के मुख्य-द्वार पर ताला लगा दिया। आज के युग ने यह चेतना प्रदान की है कि विकास का रास्ता हमें स्वयं बनाना है। किसी समाज या देश की समस्याओं का समाधान कर्म-कौशल, व्यवस्था-परिवर्तन, वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास, परिश्रम तथा निष्ठा से सम्भव है। इस कारण व्यक्ति, समाज तथा देश अपनी समस्याओं के समाधान करने के लिए तत्पर हैं, जिन्दगी को बेहतर बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति एवं विकास की ललक बढ़ रही है। वर्तमान जिन्दगी को सुधारने तथा सँवारने की अपेक्षा, पहले के व्यक्ति को ‘परलोक' की चिन्ता अधिक रहती थी। उसका ध्यान ‘स्वर्ग' या ‘बहिश्त' में पहुँचकर सुख एवं मौज-मस्ती प्राप्त करने की तरफ अधिक रहता था। भौतिक इच्छाओं की सहज एवं पूर्ण तृप्ति की कल्पना ‘स्वर्ग' या ‘बहिश्त' की परिकल्पना का आधार बनी। आज के मनुष्य की रुचि अपने वर्तमान जीवन को संवारने में अधिक है। उसका ध्यान ‘भविष्योन्मुखी' न होकर वर्तमान में है। वह दिव्यताओं को अपनी ही धरती पर उतार लाने के प्रयास में लगा हुआ है। वह पृथ्वी को ही स्वर्ग बना देने के लिए बेताब है। विज्ञान ने भी दुनिया को समझने और जानने का वैज्ञानिक मार्ग प्रतिपादित किया है। विज्ञान ने स्पष्ट किया है कि यह विश्व किसी की इच्छा का परिणाम नहीं है। सभी पदार्थ कारण-कार्य भाव से बद्ध हैं। भौतिक विज्ञान ने सिद्ध किया है कि किसी पदार्थ का कभी विनाश नहीं होता, उसका केवल रूपांतर होता है। विज्ञान ने शक्ति के संरक्षण के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। पदार्थ के अविनाशिता के सिद्धान्त की पुष्टि की है। समकालीन अस्तित्ववादी दर्शन ने भी ईश्वर का निषेध किया है। आधुनिकता का मूल प्रस्थान-बिन्दु यह विचार है कि ईश्वर मनुष्य का स्रष्टा नहीं है अपितु मनुष्य ही ईश्वर का स्रष्टा है। मध्ययुगीन चेतना के केन्द्र में ईश्वर प्रतिष्ठित था। आज की चेतना के केन्द्र में मनुष्य प्रतिष्ठित है। मनुष्य ही सारे मूल्यों का स्रोत है। वही सारे मूल्यों का उपादान है। इस संदर्भ में, मैं इस बात पर बल देना चाहता हूँ कि बच्चन ‘ उस पार ' के नहीं अपितु ‘ इस पार ' के कवि हैं। इस पार के जग में ‘रस की नदियाँ बहती हैं, रसना दो बूंदें पाती है,/ जीवन की झिलमिल सी झाँकी नयनों के आगे आती है, / स्वरतालमयी वीणा बजती, मिलती है झंकार मुझे ' , यदि उस पार इस पार मिलने वाले ये सब साधन भी छिन जाएँगे तो ऐसी स्थिति में मानव की चेतनता के आधार का क्या होगा? मनुष्य मशीन नहीं है। उसके पास दिल है, जो धड़कता है। जीभ है, जो रसास्वाद करना चाहती है। आँखें हैं, जो सुन्दर दृश्य देखना चाहती हैं। कान हैं , जो स्वरतालमय संगीत का आनन्द लेना चाहते हैं। नाक है, जो सुमनों की सुगन्ध सूँघना चाहती है। इस पार इन्द्रियों के आनन्द के सारे साधन सहज उपलब्ध हैं। यदि उस पार ये साधन उपलब्ध न हों तो फिर उस पार की क्या सार्थकता है। बच्चन इसी कारण इस पार के प्रति आश्वस्त हैं - ‘ इस पार, प्रिये मधु है तुम हो ' तथा उस पार के प्रति आशंकित हैं - ‘ उस पार न जाने क्या होगाा '।
जो आरोप बच्चन पर ‘ मधुशाला ', ‘ मधुबाला ' एवं ‘ मधुकलश ' की काव्य पंक्तियों के आधार पर लगाए जाते हैं उनमें आंशिक सत्यता तो है मगर इस सम्बंध में भी निम्न दृष्टियों से विचार करना जरूरी है -
1 .मधुशाला में भी सामाजिक समरसता एवं अभेदमूलक विचार दर्शन का प्रतिपादन हुआ है जिसकी मीमांसा की जानी चाहिए।
2 . बच्चन का काव्य संसार केवल ‘ मधुशाला ', ‘ मधुबाला ' एवं ‘ मधुकलश ' तक ही सीमित नहीं है।
3 . बच्चन केवल प्रणयानुभूति के ही कवि नहीं हैं, इस धरती के आदमी एवं सम्पूर्ण लोक के जीवन को सुखी तथा सार्थक बनाने के लिए प्रयत्नशील, सजग, सचेष्ट एवं संघर्षरत पुरुषार्थी कवि भी हैं। ‘ अग्नि देश से आता हूँ मैं ', ‘ तुम्हारा लौह चक्र आया ', प्रार्थना मत कर, मत कर ' तुम तूफान समझ पाओगे ' जैसे गीतों को पढ़ने के बाद ‘ अपराजेय विवशता ' का बोध नहीं होता। हमें तो ‘ अपराजेय क्रियाशीलता, विश्वास, आस्था ' की प्रेरणाप्रद अनुभूति होती है।
जिन आलोचकों ने बच्चन को ‘ मात्र वैयक्तिक हर्ष विषाद को प्रकटने वाला कवि ' माना है एवं / अथवा उनके काव्य का केन्द्रीय स्वर ‘ आकुल अंतर ' की पुकार पर वैयक्तिक प्रणय के लिए ‘ मिलन यामिनी ' की प्रतीक्षा में ‘ एकांत संगीत ' के सहारे ‘ निशा निमंत्रण ' देना स्वीकार किया है उनको मेरी अयाचित ही सही मगर हार्दिक आत्मीय भाव से परिपूर्ण विनम्र सलाह है कि वे ‘ धार के इधर उधर ', ‘ त्रिभंगिमा ' एवं ‘ चार खेमे चौंसठ खूँटे ' की कविताओं को उन्मुक्त दृष्टि एवं पूर्वाग्रहरहित मनः स्थिति से पढ़ने की अनुकम्पा करें। उदाहरण के लिए उनकी ‘ किसानिन का गीत ' शीर्षक कविता में उन्होंने भारतीय किसान के मनोभावों का जो चित्र प्रस्तुत किया है वह द्रष्टव्य है। उस कविता के कुछ पदबंध प्रस्तुत हैं -
‘ खेत हरियाए तो मन हरियाए ' / ‘ खेत पिए पानी तो जियरा जुड़ाए ' / ‘ खेत अँखुआएँ तो मन तो मन मुसकाए ' / ‘ खेत लहराए तो जिया लहाए ' / ‘ धान घर आए तो गान घर आए '
‘ गान ' कितना अर्थ व्यंजक है। एक अकेला शब्द जीवन के गहरे एवं व्यापक उल्लास, उमंग, उत्साह एवं आनंद को अभिव्यंजित कर पा रहा है। किसान के घर में धान का आना मानों अतिशय खुशहाली, अपार सुख संपत्ति, सम्पूर्ण सुख सुविधा की उपलब्धि है जिसकी परिणति केवल ‘ स्व ' के लिए ही नहीं अपितु ‘ पाहुन को जेवन ', ‘ कुनबे को भोजन ', ‘ साधु को भिच्छा ', एवं ‘ कुत्ते को जूठन ' के रूप में होती है। ‘ पाँव चलने को विवश थे, जब विवेक -विहीन था मन ' जैसी पंक्तियों के आधार पर जिन आलोचकों ने बच्चन के काव्य में मानव की उद्देश्यहीनता, लक्ष्यहीनता, प्रयोजनहीनता एवं ध्येयहीनता मानी है उन्हें अपनी मान्यताओं एवं स्थापनाओं में सच्चे मन से बदलाव करना चाहिए तथा इसके लिए यदि प्रमाण के लिए बच्चन की काव्य पंक्ति ही जरूरी हो तो उनके लिए बच्चन की निम्न पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं जिनमें एक पंक्ति में कवि अपने रचना कर्म के बारे में स्वयं कहता है -‘ हैं लिखे मधुगीत मैंने, हो खड़े जीवन समर में ' तथा अपनी दूसरी पंक्ति में लोक मंगल एवं कल्याण की कामना करता है - ‘ अपने उदय में हों सभी के हेतु सुखकर '
संदर्भ -
1 . तेरा हार (1932) 2 .मधुशाला (1935 ) 3 .मधुबाला (1936 )
4 .मधुकलश(1937 ) 5 .निशा निमंत्रण(1938 ) 6 .एकांत संगीत( 1939)
7 . आकुल अंतर (1943) 8 .सतरंगिनी (1945) 9 . हलाहल (1946)
10 . बंगाल का काव्य (1946) 11 . खादी के फूल (1948)
12 .सूत की माला (1948) 13 .मिलन यामिनी ( 1950) 14 .प्रणय पत्रिका (1955)
15 .धार के इधर उधर (1957) 16 . आरती और अंगारे(1958)
17 .बुद्ध और नाचघर (1958) 18 . त्रिभंगिमा (1961)
19 . चार खेमे चौंसठ खूंटे (1962) 20 . दो चट्टानें (1965)
21 .बहुत दिन बीते( 1967) 22 .कटती प्रतिमाओं की आवाज. (1968)
23 . उभरते प्रतिमानों के रूप (1969) 24 . जाल समेटा ( 1973)
सम्पर्क ः
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
(सेवा निवृत्त्ा निदेशक, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान)
123, हरि एन्क्लेव, बुलन्दशहर-203001
दूरभाष ः (05732-233089)
E-mail : [email protected]
शीर्षक उदाहरण 1
शीर्षक उदाहरण 2
शीर्षक उदाहरण 3
शीर्षक उदाहरण 4
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- [प्रोफेसर महावीर सरन जैन का आलेख : बच्चन के काव्य में निहित मानवीय दृष्टि एवं सामाजिक चेतना http://www.rachanakar.org/2009/07/blog-post_03.html#ixzz2z0FQmnyB]