गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 118

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गीता-प्रबंध
12.यज्ञ-रहस्य

ज्ञान वह चीज है जिसमें वह सारा कर्म परिसमाप्त होता है। ज्ञान से यहां किसी निम्न कोटि का ज्ञान अभिप्रेत नहीं है, बल्कि यहां अभिप्रेत है परम ज्ञान, आत्म - ज्ञान , भगवत् - ज्ञान, वह ज्ञान जिसे हम उन्ही लोगों से प्राप्त कर सकते हैं जो सृष्टि के मूल - तत्व को जानते हैं। यह वह ज्ञान है जिसके प्राप्त होने पर मनुष्य मन के अज्ञानमय मोह में तथा केवल इन्द्रिय - ज्ञान की और वासनाओं और तृष्णाओं की निम्नतर क्रियाओं में फिर नहीं फंसता। यह वह ज्ञान है जिसमें सब कुछ परिसमाप्त होता है। उसके प्राप्त होने पर “तू सब भूतों को अशेषतः आत्मा के अंदर और तब मेरे अंदर देखेगा।” क्योंकि आत्मा वही एक, अक्षर, सर्वगत, सर्वाधार, स्वतः सिद्ध सद्वस्तु या ब्रह्म है जो हमारे मनोमय पुरूष के पीछे छिपा हुआ है और जिसमें चेतना अंहभाव से मुक्त होने पर विशालता केो प्राप्त होती है और तब हम जीवन सी एक सत् के अंदर भूत रूप में देख पाते हैं। परंतु यह आत्मतत्व या अक्षर ब्रह्म हमारी वास्तविक अंतश्चेतना के सामने उन परम पुरूष के रूप में भी प्रकट होता है जो हमारी सत्ता के उद्गम - स्थान हैं और क्षर या अक्षर जिनका प्राकट्य है। वह ही हैं ईश्वर, भगवान्, पुरूषोत्तम। उन्हीं को हम हर एक चीज यज्ञ रूप से समर्पित करते हैं, उन्हीं के हाथों में हम अपने सब कर्म सौंप देते है; उन्हीं की सत्ता मे हम जीते और चलते - फिरते हैं; अपने स्वभाव में उनके साथ एक होकर और उनके अंदर जो सृष्टि है उसके साथ एक होकर, हम उनके साथ और प्राणिमात्र के साथ एक जीव, सत्ता की एक शक्ति हो जाते हैं; हम अपनी आत्म - सत्ता को उनकी परम सत्ता के साथ तद्रूप और एक कर लेते हैं। कामवर्जित यज्ञार्थ कर्मो के करने से हमें ज्ञान होता है और आत्मा अपने - आपको पा लेती है; आत्मज्ञान और परमात्मज्ञान में स्थित होकर कर्म करने से हम मुक्त हो जाते और भागवत सत्ता की एकता, शांति और आनंद में प्रवेश करते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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