गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 261

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
1.दो प्रकृतियां

हम अपनी आत्मा को अपने इस महान अन्नमय और मनोमय व्यापार का एक अंश - सा जानते हैं - अंगुष्ठ मात्र से अधिक बड़ा पुरूष को नहीं मानते ; पर यथार्थ में यह सारा जगद्व्यापार चाहे जितना भी बड़ा क्यों न मालूम हो, यह आत्मा की अनंत सत्ता के अंदर एक बहुत छोटी- सी चीज है। यहां भी वही बात है ; उसी अर्थ में ये सब भूतभाव भगवान् के अंदर हैं, भगवान् उनके अंदर नहीं हैं। यह त्रिगुणात्मिका निम्न प्रकृति जो पदार्थो को मिथ्या रूप में दिखाती है और उन्हें निम्नतर रूप दे देती है, माया है । माया से यह मतलब नहीं कि वह कुछ है ही नहीं या उसका सारा व्यापार जगत् में असत् ही के साथ है बल्कि यह कि यह हमारे बोध को चकरा देती है, असली चीज को नकली रूप में सामने रखती है और हमारे ऊपर अहंकार, मन, इन्द्रिय, देह और सीमित बुद्धि का आवरण डाल देती है और हमसे हमारी सत्ता का परम सत्य छिपाये रहती है। भरमानेवाली यह माया हमसे उस भगवत्स्वरूप को छिपाती है जो हम हैं, जो हमारा अनंत अक्षर आत्मस्वरूप है । इन विविध गुणमय भावों से यह सारा जगत् मोहित है और इससे इनके परे जो परम और अव्यय मैं हूं उसे नहीं जातना।[१] यदि हम यह देख सकें कि वही भवत्स्वरूप हमारी सत्ता का वास्तविक सद्रूप है तो और सब कुछ भी हमारी दृष्टि में बदल जायेगा, अपने असली रूप में आ जायेगा और हमारा जीवन तथा कर्म भागवत अर्थ को प्राप्त होकर भागवती प्रकृति के विधन के अनुरूप प्रवृत्त होगा। पर जब भगवान् ही इन सब चीजों में हैं और भागवती प्रकृति ही इन सब भरमाने वाले विकारों के मूल में मौजूद है और जब हम सब जीव हैं और जीव वही भागवती प्रकृति है तब क्या कारण है कि इस माया को पार इतना कठिन है, इतनी यह माया दुरत्यया है? कारण यही है कि यह माया भी तो भगवान् की माया है[२] ( यह गुणमयी देवी माया मेरी है )। यह स्वयं देवी है और भगवान् की ही प्रकृति का , अवश्य ही देवताओं के रूप में भगवान् की प्रकृति का , विकार है; यह देवी है; अर्थात् देवताओं की है या यह कहिये कि देवाधिदेव की है, परंतु देवाधिदेव के अपने विभक्त आत्मनिष्ठ तथा निम्न वैश्व अर्थात् सात्विक, राजस, तामस भाव की चीज हैं यह एक वैश्व आचरण है जो देवाधिदेव ने हमारी बुद्धि के चारों ओर बुन रखा है; ब्रह्मा, विष्णु और रूद्र ने इसके ताने - बाने बुने हैं; पराप्रकृति - रूपिणी शक्ति इस बुनावट का काम अपने अंदर पूरा कर लेना है और इसमें से होकर, इसका उपयोग करके, इसे पीछे छोड़ आगे बढ़ना है, देवताओं से फिॅरकर उन परम मूल स्परूप देवाधिदेव को प्राप्त होना है जिनमें पहुंचने से ही हम देवताओं ओर उनके कर्मो का परम अभिप्राय तथा खास अपनी ही अक्षर आत्म - सत्ता के परम गुह्म आध्यात्मिक सत्यों को एक साथ जानेंगे। “ जो मेरी ओर फिरते और आते हैं वे ही इस माया को पार करते हैं।”[३]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 7.13
  2. 7.14
  3. 7.14

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