गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 292

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
4.राजगुह्य

इस तरह परमेश्वर सब प्राणियों के अंदर उनके यज्ञ के भोक्ता स्वामी के रूप में निवास करते हैं , उन्हींकी सत्ता और शक्ति से उसका नियमन और उन्हींके आत्मज्ञान और आत्मानंद से उसका ग्रहण होता है। इसको जानना ही जगत् को वास्तविक रूप से ढूंढ़ लेना हैं क्योंकि यह ज्ञान , अपने सब कर्म और अपनी सारी चेतना सर्वभूतों में स्थित भगवान् को समर्पित कर देने से , मनुष्य के लिये अमोघ होकर उसे अपनी सत्ता में फिर से लौट आने और उस आत्मसत्ता के द्वारा इस क्षर प्रकृति के ऊध्र्व में स्थित जो विश्व से परे ज्योतिर्मय सनातन सत्तत्व है उसे प्राप्त होने में समर्थ बना देता है।यही आत्मसत्ता का रहस्य है और अब गीता इसे प्रचुर फलवत्ता के साथ हमारे आंतरिक जीवन और ब्राह्म कर्म के लिये प्रयुक्त करना चाहती है। गीता अब जो बात कहने वाली है वह गुह्मतम रहस्य है।[१]यह समग्र भगवान् , का वह ज्ञान है जिसे अर्जुन को प्रदान की प्रतिज्ञा उसके प्रभु ने की है , वह मूल स्वरूप ज्ञान अपने सब तत्वों में अपने पूर्ण ज्ञान के साथ है जिसे जान लेने पर जानने के लिये और कुछ नहीं रहा जाता। अज्ञान की वह ग्रंथि जिसने अबतक उसकी मानव - बुद्धि को मोहित कर रखा था और जिससे उसका मन अपने भगवन्नियत कर्म से फिर गया था , अब ज्ञान - विज्ञान से छिन्न - भिन्न हो जायेगी।
यह सब ज्ञानों का ज्ञान , सब गुह्मों का गुह्मा , राजविद्या , राजगुह्म है। यह वह पवित्र परम प्रकाश है जो प्रत्यक्ष आत्मानुभव से जाना जा सकता है और कोई भी इस सत्य को अपने अंदर देख सकता हैः यही यथार्थ और वास्तविक ज्ञान है , सच्ची आत्मविद्या है। इसका साधन , इसे ग्रहण करने , देख लेने और सच्चाई से पालन करने का प्रयास करने का प्रयास करने से, सहज ही बनता है। पर इसके लिये श्रद्धा की आवश्यकता है ; यदि श्रद्धा न हो , यदि उस तार्किक बुद्धि का ही भरोसा हो जो बाह्म विषयों के भरोसे चलती है और ईष्र्या के साथ अंतदृष्टि ज्ञान पर इस कारण संदेह करती है कि वह बाह्म प्रकृति के भेदों और अपूर्णताओं के साथ मेल नहीं खाता और बुद्धि के परे की चीज मालूम होता तथा कोई ऐसी बात बतलाता जान पड़ता है जो हमें हमारी वर्तमान अवस्था की मूलभूत खास बातों का ही जैसे दुःख क्लेश , पाप , दोष , प्रमाद और रस्खलन अर्थात् संपूर्ण अशुभ का ही हमसे अतिक्रम कराती है- यदि वैसी बुद्धि का ही भरोसा है - तो उस महत्तर ज्ञान से युक्त जीवन की कोई संभावना नहीं है। यदि उस महत्तर सत्य और विधन पर जीव की श्रद्धा न जमे तो उसे मृत्यु , प्रमाद , और अशुभ के अधीन रहकर सामान्य मत्र्य जीवन जीने के लिये लौट आना पडे़गा ; उन परमेश्वर के स्वरूप में वह विकसित नहीं हो सकता जिनकी सत्ता को ही वह अमान्य करता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 9.1 – 3

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