गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 291
भगवान् एक ही साथ अव्यक्त ब्रह्म और व्यक्त होने वाले पुरूष हैं। उनका अव्यक्त स्वरूप हमारी बौद्धिक अनुभूति में एक कालातीत सत्ता , चेतना और आनंदभाव है ; उनका वयक्त रूप सत्ता की सचेतन शक्ति , ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति का एक चिन्मय केन्द्र और आत्मविर्भाव से नानात्व के आनंद का एक प्रतीक है। हम अपनी सत्ता के स्थितिशील वास्तवकि स्वरूप में वही एक अव्यक्त ब्रह्म हैं , हममें से हर कोई अपने वैयक्तिक आत्मभाव से उसी एक मूल शक्ति का नानात्व है। फिर भी जो भेद और तारतम्य सर्वत्र दीख पड़ता है वह केवल आत्मा के आविर्भाव के लिये है ; इस अव्यक्त रूप से पीछे जाकर देखे तो यही रूप अनंत ब्रह्मस्वरूप , परम पुरूष , परमातम भी है। यही वह महान् अहम् - ( मैं वह हूं) है जिसमें से सारे व्यष्टि - जीवभाव और स्वभाव निकलते और एक निव्र्यक्तिक समष्टि - जगत् के रूप में अपने को नाना भाव से प्रकट करते हैं। यही उपनिषदें कहती हैं; क्योंकि ब्रह्म एकमेव आत्मा है जो अपने - आपको क्रम से चैतन्य के चार पदों पर प्रतिष्ठित देखता है। सनातन पुरूष वासुदेव ही सब कुछ हैं , यही गीता का कथन है। वे ही ब्रह्म हैं और वे ही सचेतन रूप से अनी परा आत्मा - प्रकृति से सबके आरय बनते और सबको उत्पन्न करते हैं , स्वयं ही सचेतन रूप से बुद्धि , मन , प्राण , इन्द्रिय और इस सारे ब्राह्म स्थूल जगत् वाली प्रकृति की सब चीजें बनते हैं।
सनातन पुरूष की उस परा आत्मप्रकृति में , अपने सनातन नानात्व में , सचेतन शक्ति के विविध केन्द्रों से अपने आत्मदर्शन में वे ही जीव हैं। ईश्वर , प्रकृति और जीव एक सद्वस्तु के तीन नाम हैं , और ये तीनों एक सत्ता हैं।यह सत्ता , यह सदात्मा किस प्रकार विश्वरूप में आविर्भूत होती हैं ? पहले , अक्षर कालातीत उस आत्मा या ब्रह्म के रूप से जो सर्वत्र अवस्थित है और सबको आश्रय देती है , जो अपनी सनातनी सत्ता से सत्तवान् है , संभूति नहीं। इसके उपरांत , इसी सत्ता पर आश्रित , स्वयं सृष्ट होने की एक ऐसी मूलगत शक्ति या अध्यात्म तत्व है जिसे स्वभाव कहते हैं , जिसके द्वारा यह सदात्मा आत्मदृष्टि से अपने अंदर देखकर यह सब जो उसकी अपनी सत्ता के अंदर छिपा या समाविष्ट रहता है उसे अपने संकल्प में ले आता और प्रकट करता है , उसे उस सुप्तावस्था से निकलकर उत्पन्न करता है। वह अध्यात्म - तत्व या स्वभाव - शक्ति आत्मा के अंदर इस प्रकार जो कुछ संकल्पित होता है उसे अखिल विश्व - कर्म के रूप में बाहर छोड़ती है। सारी सृष्टि यही क्रिया है , स्वभाव की यही प्रवृत्ति है , यही तो कर्म है। परंतु वह यहां बुद्धि , मन ,प्राण , इन्द्रिय और स्थूल प्राकृत विषयों की क्षर प्रकृति के रूप में विकसित हुई है जो निरपेक्ष प्रकाश से विच्छिन्न होकर अज्ञान से सीमित है। वहां अपने मूल रूप में इसकी सारी क्रियाएं प्रकृति में स्थित जीवात्मा की , प्रकृति में गुप्त रूप से स्थित परमात्मा के लिये यज्ञस्वरूप होती है।
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