भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-60
24. पारतंत्र्य-मीमांसा
1. गुणाः सृजन्ति कर्माणि गुणोऽनुसृजते गुणान्।
जीवस्तु गुणसंयुक्तो भुंक्ते कर्मफलान्यसौ।।
अर्थः
गुण कर्मों को पैदा करते हैं और कर्म करने पर गुणों में से गुण पैदा होते जाते हैं। (और कर्म बढ़ते जाते हैं। जिसका गुणों से कोई संबंध नहीं, वह) यह जीव गुणों से युक्त होकर कर्म-फल का उपभोग करता है।
2. यावत् स्याद् गुणवैषम्यं तावन्नात्वमात्मनः।
नानात्वमात्मनो यावत् परतंत्र्यं तदैव हि।।
अर्थः
जब तक गुणों का उतार-चढ़ाव चल रहा है, तब तक आत्मा (जीव) एकत्व को भूलकर नानात्व में फँसा रहता है। जब तक यह नानात्व है, तब तक आत्मा की परतंत्रता बनी ही रहेगी।
3. यावदस्यास्वतंत्रत्वं तावदीश्वरतो भयम्।
य ऐतत् समुपासीरन् ते मुह्यन्ति शुचार्पिताः।।
अर्थः
जब तक जीवात्मा को स्वातंत्र्य नहीं है, तब तक उसे ईश्वर से भय बना है। जो गुण-वैषम्य की उपासना करते हैं, वे शोक के दास बनकर मोह में पड़ते हैं।
4. काल आत्माऽऽगमो लोकः स्वभावो धर्म ऐव च।
इति मां बहुधा प्राहुर् गुणव्यतिकरे सति।।
अर्थः
जब गुण-वैषम्य चलता रहता है, तब मुझ परमेश्वर को काल, आत्मा, आगम, लोक, स्वभाव, धर्म आदि अनेक नाम दिए जाते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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