महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 147 श्लोक 20-42

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सप्तचत्वारिंशदधिकशततम (147) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: सप्तचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 20-42 का हिन्दी अनुवाद


वे समस्त प्राणियों को शरणदेने वाले, दीन-दुखियों के पालन में तत्पर, शास्त्रज्ञानसम्पन्न, धनवान्, सर्वभूतवन्दित, शरण में आयु हुए शत्रुओं को भी वर देने वाले, धर्मज्ञ, नीतिज्ञ, नीतिमान्, ब्रह्मवादी और जितेन्द्रिय हैं। परम बुद्धि से सम्पन्न भगवान गोविन्द यहाँ देवताओं की उन्नति के लिये प्रजापति के शुभमार्ग पर स्थित हो मनु के धर्म-संस्कृत कुल में अवतार लेंगे। महात्मा मनु के वंश में मनुपुत्र अंग नामक राजा होंगे। उनसे अन्तर्धामा नाम वाले पुत्र का जन्म होगा। अन्तर्धामा से अनिन्द्य प्रजापति हविर्धामा की उत्पत्ति होगी। हविर्धामा के पुत्र महाराज प्राचीनबर्हि होंगे। प्राचीनबर्हि के प्रचेता आदि दस पुत्र होंगे। उन दसों प्रचेताओं से इस जगत् में प्रजापति दक्ष का प्रादुर्भाव होगा। दक्षकन्या अदिति से आदित्य (सूर्य) उत्पन्न होंगे। सूर्य से मनु उत्पन्न होंगे। मनु के वंश में इला नामक कन्या होगी, जो आगे चलकर सुद्युम्न नामक पुत्र के रूप में परिणत हो जायगी। कन्यावस्था में बुध से समागम होने पर उससे पुरूरवा का जन्म होगा। पुरूरवा से आयु नामक पुत्र की उत्पत्ति होगी। आयु के पुत्र नहुष और नहुष के ययाति होंगे। ययाति से महान् बलशाली यदु होंगे। यदु से क्रोष्टा का जन्म होगा, क्रोष्टा से महान् पुत्र वृजिनीवान् होंगे। वृजिनीवान् से विजय वीर उषंगु का जन्म होगा। उषंगु कापुत्र शूरवीर चित्ररथ होगा।उसका छोटा पुत्र शूर नाम से विख्यात होगा। वे सभी यदुवंशी विख्यात पराक्रमी, सदाचार और सद्गुण से सुशोभित, यज्ञशील और विशुद्ध आचार-विचार वाले होंगे। उनका कुल ब्राह्मणों द्वारा सम्मानित होगा। उस कुल में महापराक्रमी, महायशस्वी और दूसरों को सम्मान देने वाले क्षत्रिय-शिरोमणि शूर अपने वंश का विस्तार करने वाले वसुदेव नामक पुत्र को जन्म देंगे, जिसका दूसरा नाम आनकदुन्दुभि होगा। उन्हीं के पुत्र चार भुजाधारी भगवान वासुदेव होंगे। भगवान वासुदेव दानी, ब्राह्मणों का सत्कार करने वाले, ब्रह्मभूत और ब्राह्मणप्रिय होंगे। वे यदुकुलतिलक श्रीकृष्ण मगधराज जरासंध की कैद में पड़े हुए राजाओं को बन्धन से छुड़ायेंगे। वे पराक्रमी श्रीहरि पर्वत की कन्दरा(राजगृह)- में राजा जरासंध को जीतकर समस्त राजाओं के द्वारा उपहृत रत्नों से सम्पन्न होंगे। वे इस भूमण्डल में अपने बल-पराक्रम द्वारा अजेय होंगे। विक्रम से सम्पन्न् तथा समस्त राजाओं के भी राजा होंगे। नीतिवेत्ता भगवान श्रीकृष्ण शूरसेन देश (मथुरा-मण्डल)- में अवतीर्ण होकर वहाँ से द्वारकापुरी में जाकर रहेंगे और समस्त राजाओं को जीतकर सदा इस पृथ्वी देवी का पालन करेंगे। आप लोग उन्हीं भगवान की शरण लेकर अपनी वाड्मयी मालाओं तथा श्रेष्ठ पूजनोपचारों से सनातन ब्रह्मा की भाँति उनका यथोचित पूजन करें। जो मेरा और पितामह ब्रह्माजी का दर्शन करना चाहता हो, उसे प्रतापी भगवान वासुदेव का दर्शन करना चाहिये। तपोधनों! उनका दर्शन हो जाने पर मेरा ही दर्शन हो गया, अथवा उनके दर्शन से देवेश्वर ब्रह्माजी का दर्शन हो गया ऐसे समझो, इस विषय में मुझे कोई विचार नही करना है अर्थात् संदेह नहीं है। जिस पर कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण प्रसन्न होंगे, उसके ऊपर ब्रह्मा आदि देवताओं का समुदाय प्रसन्न हो जायगा। मानवलोक में जो भगवान श्रीकृष्ण की शरण लेगा, उसे कीर्ति, विजय तथा उत्तम स्वर्ग की प्राप्ति होगी। इतना ही नहीं, वह धर्मों का उपदेश देने वाला साक्षात् धर्माचार्य एवं धर्मफल का भागी होगा। अतः धर्मात्मा पुरूषों को चाहिये कि वे सदा उत्साहित रहकर देवेश्वर भगवान वासुदेव को नमस्कार करें।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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