महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 31 श्लोक 18-36

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एकत्रिंश (31) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: एकत्रिंश अध्याय: श्लोक 18-36 का हिन्दी अनुवाद

केशव! जिनके मन मे ममता नहीं है, जो प्रतिद्वन्द्वियों से रहित, लज्जा से उपर उठे हुए तथा कहीं भी कोई प्रयोजन न रखने वाले है, प्रवचन-कुशल और ब्राहमवादी हैं, जिन्होंने अहिंसा में तत्पर रहकर सदा सत्य बोलने का व्रत ले रखा है तथा जो इन्द्रियसंयम एंव मनोनिग्रह के साधन में संलग्न रहते हैं उनको मैं नमस्कार करता हूं। यादव! जो गृहस्थ ब्राहमण सदा कपोतवृति से रहते हुए देवता और अतिथियों को पूजा में संलग्न रहते हैं, उनको मैं मस्तक झुकाता हूं। जिन के कार्यों में धर्म, अर्थ और काम तीनों का निर्वाह होता है, किसी एक की भी हानि नहीं होने पाती तथा जो सदा शिष्टाचार में ही संलग्न रहते है, उनको मैं नमस्कार करता हूं। केषव! जो ब्राहमण वेद-शास्त्रों के ज्ञान से सम्पन्न, धर्म, अर्थ और काम का सेवन करने वाले, लोलुपता से रहित और स्वभावतः पुण्यात्मा हैं उन्हें मैं नमस्कार करता हूं।
माधव! जो नाना प्रकार के व्रतों का पालन करते हुए केवल पानी या हवा पीकर ही रह जाते हैं तथा जो सदा यज्ञशेष अन्न का ही भोजन करते हैं उनके चरणों में मैं प्रणाम करता हू। जो स्त्री नहीं रखते अर्थात् ब्रहमचर्य का पालन करते हैं, जो अग्निहोत्र से युक्त हैं तथा जो वेदो को धारण करने वाले है और समस्त प्राणियों के आत्मस्वरूप परमात्मा को ही सबका कारण मानने वाले हैं उनकी मैं सदा वन्दना करता हूं। श्रीकृष्ण! जो लोकों को सृष्टि करने वाले, संसार में सबसे श्रेष्ठ, उतम कुल में उत्पन्न, अज्ञानान्धकार का नाश करने वाले तथा सूर्य के समान जगत्को ज्ञानालोक प्रदान करनेवाले हैं उन ऋषियों को मैं सदा मस्तक झुकाता हूं। वाष्र्णेय! अतः आप भी सदा ब्राहमणों का पूजन करें। निष्पाप श्रीकृष्ण! वे पूजनीय ब्राहमण पूजित होने पर आपको अपने आशीर्वाद सुख प्रदान करेंगे। ये ब्राहमण सदा इहलोक और परलोक में भी सुख प्रदान करते हुए विचरते है।
ये सम्मानित होने पर आपको अवश्य ही सुख प्रदान करेंगे। जो सब का अतिथि सत्कार करते तथा गौ-ब्राहमण और सत्यपर प्रेम रखते है वे बड़े-बड़े संकट से पार हो जाते है। जो सदा मन को वश में रखते, किसी के दोष पर दृष्टि नहीं डालते और प्रतिदिन स्वाध्याय में संलग्न रहते हैं वे दुर्गम संकट से पार हो जाते है। जो सब देवताओं को प्रणाम करते है, एकमात्र वेद का आश्रम लेते, श्रद्धा रखते और इन्द्रियों को वश में रखते हैं वे भी दुस्तर संकट से छुटकारा पा जाते है। इसी प्रकार जो नियमपूर्वक व्रतों का पालन करते हैं और श्रेष्ठ ब्राहमणों को नमस्कार करके उन्हें दान देते हैं वे दुस्तर विपति लांघ जाते है। जो तपस्वी, आबालब्राहमचारी और तपस्या से शुद्ध अन्तःकरणवाले हैं वे दुर्गम संकट से पार हो जाते है।
जो देवता, अतिथि, पोश्यवर्ग तथा पितरों के पूजन में तत्पर रहते हैं और यज्ञशिष्ट अन्न का भोजन करते हैं वे दुर्गम संकट से पार हो जाते है। जो विधिपूर्वक अग्नि की स्थापना करके सदा अग्निदेव की उपासना और वन्दना करते हुए सर्वदा उस अग्नि की रक्षा करते हैं; तथा उस में सोमरस की आहुति देते हैं वे दुस्तर विपति से पार हो जाते हैं। वृष्णिसिंह! जो आपकी ही भांति माता-पिता और गुरू के प्रति पूर्णतः न्याययुक्त बर्ताव करते हैं वे भी संकट से पार हो जाते हैं-ऐसा कहकर नारद जी चुप हो गये। अतः कुन्तीनन्दन! यदि तुम भी सदा देवताओं, पितरों, ब्राहमणों और अतिथियों का भलीभांति पूजन एवं सत्कार करते रहोगे तो अभीष्ट गति प्राप्त कर लोगे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्तर्गत दानधर्मपर्व में श्रीकृष्ण-नारदसंवादविषयक इकतीसवां अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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