महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 32 श्लोक 1-16

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द्वात्रिंश (32) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: द्वात्रिंश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

राजर्षि वृषदर्भ या उशीनर-के द्वारा शरणागत कपोत की रक्षा तथा उस पुण्य के प्रभाव से अक्षयलोक की प्राप्ति

युधिष्ठिरन पूछा-महाप्राज्ञ पितामह! आप सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञान में निपूण हैं, अतः भरतसतम! मैं आप से ही धर्मविषयक उपदेश सुनना चाहता हूं। भरतश्रेष्ठ! अब यह बताने की कृपा कीजिये कि जो लोग शरण में आए हुए अण्डज, पिण्डज, स्वेदज और उभ्दिज्ज-इन चार प्रकार के प्राणियों की रक्षा करते हैं उनको वास्तव में क्या फल मिलता है ? भीष्मजी ने कहा- महाप्राज्ञ, महायशस्वी धर्मपुत्र युधिष्ठिर! शरणागत की रक्षा करने से जो महान् फल प्राप्त होता है। उसके विषय में तुम यह एक प्राचीन इतिहास सुनो। एक सयम की बात है, एक बाज किसी सुन्दर कबुतर को मार रहा था। वह कबुतर बाज के डर से भागकर महाभाग राजा वृषदर्भ (उशीनगर)- की शरण में गया। भय के मारे अपनी गोद में आये हुए उस कबूतर को देखकर विशुद्ध अन्तःकरणवाले राजा उशीनर ने उस पक्षी को आश्वासन देकर कहा-’अण्डज’! शान्त रह। यहां तुझे कोई भय नहीं है। ’बता, तुझे यह महान् भय कहां और किस से प्राप्त हुआ है ? तूने क्या अपराध किया है ? जिस से तेरी चेतना भ्रान्त-सी हो रही हैं तथा तू यहां बेसुध-सा होकर आया है।
’नूतन नील-कमलके हारकी भांति तेरी मनोहर कान्ति है। तू देखने में बड़ा सुन्दर है। तेरी आंखे अनार और अशोक के फूलों की भांति लाल हैं। तू भयभीत न हो। मैं तुझे अभय दान देता हूं। ’अब तू मेरे पास आ गया है; अतः रक्षाध्यक्ष के सामने है। यहां तुझे कोई मन से भी पकड़ने वाला का साहस नहीं कर सकता। भयभीत कबूतर महाराज शिबि की गोद में ’कबूतर! आज ही मैं तेरी रक्षा के लिये यह काशिराज्य अर्थात् प्रकाशमान उशीनर देश का राज्य तथा अपना जीवन भी निछावर कर दूंगा। तू इस बात पर विश्वास कर के निश्चिन्त हो जा। अब तुझे कोई भय नहीं है। इतने ही में बाज भी वहां आ गया और बोला- राजन्! विधाता ने इस कबूतर को मेरा भोजन नियत किया है। आप इसकी रक्षा न करें। इसका जीवन गया हुआ ही है; क्योंकि अब यह मुझे मिल गया है। इसे मैंने बड़े प्रयत्न से प्राप्त किया है। इसके रक्त, मांस, मज्जा और मेदा सभी मेरे लिये हितकर हैं।
यह कबूतर मेरी क्षुधा मिटाकर मुझे पूर्णतः तृप्त कर देगा; अतः आप इस मेरे आहार के आगे आकर विध्न न डालिये। मैं बड़ी दूरसे इस के पीछे पड़ा हुआ हूं। यह मेरे पंखों और पंजों से घायल हो चुका है। अब इसकी कुछ-कुछ सांस बाकी रह गयी। राजन्! ऐसी दशा में आप इसकी रक्षा न करें। श्रेष्ठ नरेश्वर! अपने देश में रहनेवाले मनुष्यों की ही रक्षा करने के लिये आप राजा बनाये गये हैं। भूख-प्यास पीडि़त हुए पक्षी के आप स्वामी नहीं है। यदि आप में शक्ति है तो वैरियों, सेवकों, स्वजनों, वादी-प्रतिवादी के व्यवहारों (मुदई-मुदालहों के मामलों) तथा इन्द्रियों के विषयों पर पराक्रम प्रकट कीजिये। आकाश में रहनेवालों पर अपने बल का प्रयोग न कीजिये। जो लोग आपकी आज्ञा भंग करनेवाले शत्रु को टिके अन्तर्गत हैं उनपर पराक्रम करके अपनी प्रभुता प्रकट करना आपके लिये उचित हो सकता है। यदि धर्म के लिये आप यहां कबूतर की रक्षा करते हों तो मुझ भूखे पक्षी पर भी आपको दृष्टि डालनी चाहिये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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