महाभारत अादि पर्व अध्याय 1 श्लोक 160-169
प्रथम (1) अध्याय: आदि पर्व (अनुक्रमणिका पर्व)
संजय ! जब मैंने सुना कि धर्मराज युधिष्ठिर को जूए में शकुनि ने हरा दिया और उनका राज्य छीन लिया, फिर भी उनके अतुल बलशाली धीर गम्भीर भाईयों ने युधिष्ठिर का अनुगमन ही किया, तभी मैंने विजय की आशा छोड़ दी। जब मैंने सुना कि वन में जाते समय धर्मात्मा पाण्डव धर्मराज युधिष्ठिर के प्रेमवश दुःख पा रहे थे और अपने हृदय का भाव प्रकाशित करने के लिये विविध प्रकार की चेष्ठाएँ कर रहे थे; संजय ! तभी मेरी विजय की आशा नष्ट हो गयी। जब मैंने सुना कि हजारों स्न्नातक वनवासी युधिष्ठिर के साथ रह रहे हैं और वे तथा दूसरे महात्मा एवं ब्राह्मण उनसे भिक्षा प्राप्त करते हैं। संजय ! तभी मैं विजय के सम्बन्ध में निराश हो गया। संजय ! जब मैंने सुना कि किरातवेपधारी देव-देव त्रिलोचन महादेव को युद्ध में संतुष्ट करके अर्जुन ने पाशुपत नामक महान अस्त्र प्राप्त कर लिया है, तभी मेरी आशा निराशा में परिणत हो गयी। जब मैंने सुना कि वनवास में भी कुन्ती-पुत्रों के पास पुरातन महर्षि गण पधारते और उनसे मिलते हैं। उनके साथ उठते-बैठते और निवास करते हैं तथा सेवक-सम्बन्धियों सहित पाण्डवों के प्रति उनका मैत्री भाव हो गया है। संजय ! तभी से मुझे अपने पक्ष की विजय का विश्वास नहीं रह गया था। जब मैंने सुना कि सत्यसंध धनंजय अर्जुन स्वर्ग में गये हुए हैं और वहाँ साक्षात इन्द्र से दिव्य अस्त्र-शस्त्र की विधिपूर्वक शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं और वहाँ उनके पौरूष एवं ब्रह्मचर्य आदि की प्रशंसा हो रही है, संजय! तभी से मेरी युद्ध में विजय की आशा जाती रही। जब से मैंने सुना कि वरदान के प्रभाव से घमंड के नशे में चूर कालकेय तथा पौलोम नाम के असुरों को, जिन्हें बड़े-बड़े देवता भी नहीं जीत सकते थे, अर्जुन ने बात-की-बात में पराजित कर दिया, तभी से संजय ! मैंने विजय की आशा कभी नहीं की। मैंने जब सुना कि शत्रुओं का संहार करने वाले किरीटी अर्जुन असुरों का वध करने के लिये गये थे और इन्द्रलोक से अपना काम पूरा करके लौट आये हैं, संजय ! तभी मैंने समझ लिया-अब मेरी जीत की कोई आशा नहीं। जब मैंने सुना कि पाण्डु नन्दन युधिष्ठिर महर्षि लोमशजी के साथ तीर्थ यात्रा कर रहे हैं और लोमशजी के मुख से ही उन्होंने यह भी सुना है कि स्वर्ग में अर्जुन को अभीष्ट वस्तु (दिव्यास्त्र) की प्राप्ति हो गयी है, संजय ! तभी से मैंने विजय की आशा ही छोड़ दी। जब मैंने सुना कि भीमसेन तथा दूसरे भाई उस देश में जाकर, जहाँ मनुष्यों की गति नहीं है, कुबेर के साथ मेल-मिलाप कर आये, संजय ! तभी मैंने विजय की आशा छोड़ दी थी। जब मैंने सुना कि कर्ण की बुद्धि पर विश्वास करके चलने वाले मेरे पुत्र घोष-यात्रा के निमित्त गये और गन्धर्वों के हाथ बन्दी बन गये और अर्जुन ने उन्हें उनके हाथ से छुड़ाया संजय ! तभी से मैंने विजय की आशा छोड़ दी। सतू संजय ! जब मैंने सुना कि यमराज यक्ष का रूप धारण करके युधिष्ठिर से मिले और युधिष्ठिर ने उनके द्वारा किये गये गूढ़ प्रश्नों का ठीक-ठीक समाधान कर दिया, तभी विजय के सम्बन्ध में मेरी आशा टूट गयी।
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