महाभारत आदि पर्व अध्याय 131 श्लोक 1-17

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

एकत्रिंशदधिकशततम (131) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: > एकत्रिंशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

द्रोणाचार्य द्वारा राजकुमारों की शिक्षा, एकलव्‍य की गुरुभक्ति तथा आचार्य द्वारा शिष्‍यों की परीक्षा वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! तदनन्‍तर मनुष्‍यों में श्रेष्ठ महातेजस्‍वी द्रोणाचार्य ने भीष्‍मजी के द्वारा पूजित हो कौरवों के घर में विश्राम किया। वहां उनका बड़ा सम्‍मान किया गया । गुरु द्रोणाचार्य जब विश्राम कर चुके, तब सामर्थ्‍यशाली भीष्‍मजीने अपने कुरुवंशी पौत्रों को लेकर उन्‍हें शिष्‍य रूप में समर्पित किया। साथ ही अत्‍यन्‍त प्रसन्न होकर भरद्वाजनन्‍दन द्रोण को नाना प्रकार के धन-रत्न और सुन्‍दर सामग्रियों से सुसज्जित तथा धन-धान्‍य से सम्‍पन्न भवन प्रदान किया । महाधर्नुधर आचार्य द्रोण ने प्रसन्नचित्त होकर उन धृतराष्ट्र पुत्रों तथा पाण्‍डवों को शिष्‍य रूप में ग्रहण किया। उन सबको ग्रहण्‍ कर लेने पर एक दिन एकान्‍त में जब द्रोणाचार्य पूर्ण विश्वासयुक्त मन से अकेले बैठे थे, तब उन्‍होंने अपने पास बैठे हुए सब शिष्‍यों से यह बात कही । द्रोण बोले- निष्‍पाप राजकुमारो ! मेरे मन में एक कार्य करने की इच्‍छा है। अस्त्र शिक्षा प्राप्त कर लेने के पश्‍चात् तुम लोगों को मेरी यह इच्‍छा पूर्ण करनी होगी। इस विषय में तुम्‍हारे क्‍या विचार हैं, बतलाओ । वैशम्‍पायनजी कहते हैं- शत्रुओं को संताप देने वाले राजा जनमेजय ! आचार्य की यह बात सुनकर सब कौरव चुप रह गये; परंतु अर्जुन ने वह सब कार्य पूर्ण करने की प्रतिज्ञा कर ली । तब आचार्य ने बारम्‍बार अर्जुन का मस्‍तक सूंघा और उन्‍हें प्रेम पर्वूक हृदय से लगाकर वे हर्ष के आवेश में रो पड़े । तब पराक्रमी द्रोणाचार्य पाडण्‍वों (तथा अन्‍य शिष्‍यों) को नाना प्रकार के दिव्‍य एवं मानव अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा देने लगे । भरतश्रेष्ठ ! उस समय दूसरे-दूसरे राजकुमार भी अस्त्र विद्या की शिक्षा लेने के लिये द्विजश्रेष्ठ द्रोण के पास आने लगे । वष्णिवंशी तथा अन्‍धकवंशी क्षत्रिय, नाना देशों के राजकुमार तथा राधानन्‍दन सूतपुत्र कर्ण- ये सभी आचार्य द्रोण के पास (अस्त्र-शिक्षा लेने के लिये) आये । सूतपुत्र कर्ण सदा अर्जुन से लाग-डांट रखता और अत्‍यन्‍त अमर्ष में भरकर दुर्योधन का सहारा ले पाण्‍डवों का अपमान किया करता था । पाण्‍डुदन्‍दन अर्जुन (सदा अभ्‍यास में लगे रहने से ) धनुर्वेद की जिज्ञासा, शिक्षा, बाहुबल और उद्योग की दृष्टि से उन सभी शिष्‍यों में श्रेष्ठ एवं आचार्य द्रोण की समानता करने योग्‍य हो गये। उनका अस्त्रविद्या में बड़ा अनुराग था, इसलिये वे तुल्‍य अस्त्रों के प्रयोग, फुर्ती और सफाई में भी सबसे बढ़-चढ़कर निकले । आचार्य द्रोण उपदेश ग्रहण करने में अर्जुन को अनुपम प्रतिभाशाली मानते थे। इस प्रकार आचार्य सब कुमारों को अस्त्रविद्या की शिक्षा देते रहे । वे अन्‍य सभी शिष्‍यों को तो पानी लाने के लिये कमण्‍डल देते, जिससे उन्‍हें लौटने में कुछ विलम्‍ब हो जाय; परंतु अपने पुत्र अश्‍वत्‍थामा को बड़े मुंह का घड़ा देते, जिससे उसके लौटने में विलम्‍ब न हो (अत: अश्‍वत्‍थामा सबसे पहले पानी भरकर उनके पास लौटा आता था) । जब तक दूसरे शिष्‍य लौट नहीं आते, तब तक वे अपने पुत्र अश्‍वत्‍थामा को अस्त्र संचालन की कोई उत्तम विधि बतलाते थे। अर्जुन ने उनके इस कार्य को जान लिया ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।