महाभारत आदि पर्व अध्याय 130 श्लोक 67-79
त्रिंशदधिकशततम (130) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
सब बातों में समानता होने से ही मित्रता होती है। विषमता होने पर मैत्री का होना असम्भव है। फिर लोक में कभी किसी की मैत्री अजर-अमर नहीं होती । “समय एक मित्र को दूसरे से विलग कर देता है अथवा क्रोध मनुष्य को हटा देता है। इस प्रकार क्षीण हाने वाली मैत्री ही उपासना (भरोसा) न करो। हम दोनों एक दूसरे के मित्र थे, इस भाव को हृदय से निकाल दो । ‘द्विजश्रेष्ठ ! तुम्हारे साथ पहले जो मेरी मित्रता थी, वह ( साथ-साथ खेलने और अध्ययन करने आदि ) स्वार्थ को लेकर हुई थी। सच्ची बात यह है कि दरिद्र मनुष्य धनवान् का, मूर्ख विद्वान् का और कायर शूरवीर का सखा नहीं हो सकता; अत: पहले की मित्रता का क्या भरोसा करते हो? मन्दमते ! बड़े-बड़े राजाओं की तुम्हारे जैसे श्रीहीन और निर्धन मनुष्यों के साथ कभी मित्रता हो सकती है? जो श्रोत्रिय नहीं है, वह श्रोत्रिय का, जो रथी नहीं है, वह रथी का तथा जो राजा नहीं है, वह राजा का मित्र नहीं हो सकता । फिर तुम मुझे जीर्ण-शीर्ण मित्रता का स्मरण क्यों दिलाते हो? मैंने अपने राज्य के लिये तुमसे कोई प्रतिज्ञा की थी, इसका मुझे कुछ भी स्मरण नहीं है । ‘ब्रह्मन् ! तुम्हारी इच्छा हो तो मैं तुम्हें एक रात के लिये अच्छी तरह भोजन दे सकता हूं।’ राजा द्रुपद के यों कहने पर मैं पत्नी और पुत्र के साथ वहां से चल दिया । चलते समय मैंने एक प्रतिज्ञा की थी, जिसे शीघ्र पूर्ण करूंगा। द्रुपद के द्वारा जो इस प्रकार तिरस्कार पूर्ण वचन मेरे प्रति कहा गया है, उसके कारण मैं क्षोभ से अत्यन्त व्याकुल हो रहा हूं । भीष्मजी ! मैं गुणवान् शिष्यों के द्वारा अभीष्ट की सिद्धि चाहता हुआ आपके मनोरथ को पूर्ण करने के लिये पञ्चाल देश के कुरुराज्य के भीतर इस रमणीय हस्तिनापुर नगर में आया हूं। बताइये, मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूं? । वैशम्पायनजी कहते हैं- द्रोणार्चाय के यों कहने पर भीष्म ने उनसे कहा- । भीष्मजी बोले- विप्रवर ! अब आप अपने धनुष की डोरी उतार दीजिये और यहां रहकर राजकुमारों को धनुर्वेद एवं अस्त्र-शस्त्रों की अच्छी शिक्षा दीजिये। कौरवों के घर में सदा सम्मानित रहकर अत्यन्त प्रसन्नता के साथ मनोवाञ्छित भोगों का उपभोग कीजिये । कौरवों के पास जो धन, राज्य-वैभव तथा राष्ट्र है, उसके आप ही सबसे बड़े राजा हैं। समस्त कौरव आपके अधीन हैं ।। ब्रह्मन् ! आपने जो मांग की है, उसे पूर्ण हुई समझिये। ब्रह्मर्षे ! आप आये, यह हमारे लिये सौभाग्य की बात है। आपने यहां पधारकर मुझ पर महान् अनुग्रह किया है ।
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