महाभारत आदि पर्व अध्याय 213 श्लोक 1-21

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त्रयोदशाधिकद्विशततम (213) अध्‍याय: आदि पर्व (अर्जुनवनवास पर्व )

महाभारत: आदि पर्व: त्रयोदशाधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद


अर्जुन का गंगाद्वार में ठहरना और वहां उनका उलूपी के साथ मिलन

वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! कौरव वंश का यश बढ़ानेवाले महाबाहु अर्जुन जब जाने लगे, उस समय बहुत-से वेदज्ञ महात्‍मा ब्राह्मण उनके साथ हो लिये। वेद-वेदांज्ञ के विद्वान, अध्‍यात्‍म चिन्‍तन करनेवाले, भिक्षा जीवी ब्रह्मचारी, भगवद्रक्‍त, पुराणों के ज्ञाता सूत, अन्‍य कथा वाचक, सन्‍यासी, वानप्रस्‍थ तथा जो ब्राह्मण मधुर स्‍वर से दिव्‍य कथाओं का पाठ करते हैं, वे सब अर्जुन के साथ गये।जैसे इन्‍द्र देवताओं के साथ चलते हैं, उसी प्रकार पाण्‍डु नन्‍दन अर्जुन पूर्वोक्‍त पुरुषों तथा अन्‍य बहुत-से मधुर भावी सहायकों के साथ यात्रा कर रहे थे। भारत ! नरश्रेष्‍ठ अर्जुन ने मार्ग में अनेक रमणीय एवं विचित्र वन, सरोवर, नदी, सागर, देश और पुण्‍यतीर्थ देखे। धीरे-धीरे गंगा द्वार (हरद्वार) में पहुंचकर शक्तिशाली पार्थ ने वहीं डेरा डाल दिया। जनमेजय ! गंगा द्वार में अर्जुन का एक अद्रुत कार्य सुनो, जो पाण्‍डवों में श्रेष्‍ठ विशुद्ध चित धनंजय ने किया था। भारत ! जब कुन्‍तीकुमार और उनके साथ ब्राह्मण लोग गंगा द्वार में ठहर गये, तब उन ब्राह्मणों ने अनेक स्‍थानों पर अग्निहोत्र के लिये अग्नि प्रकट की। गंगा के तट पर जब अलग-अलग अग्रियां प्रज्वलित हो गयी और सन्‍मार्ग से स्थित एवं मन-इन्द्रियों को वश में रखने वाले विद्वान बाह्मण लोग स्‍नान करके फूलों के उपहार चढ़ाकर जब पूर्वोक्‍त अग्नियों में आहुति दे चुके, तब उन महात्‍माओं के द्वारा उस गंगाद्वार नामक तीर्थ की शोभा बहुत बढ़ गयी।। इस प्रकार विद्वान एवं महात्‍मा ब्राह्मणों से जब उनका आश्रम भरा-पूरा हो गया, उस समय कुन्‍ती नन्‍दन अर्जुन स्‍नान करने के लिये गंगा में उतरे। राजन् ! वहां स्‍नान करके पितरों का तर्पण करने के पश्‍चात् अग्निहोत्र करने के लिये वे जल से निकलना ही चाहते थे कि नागराज की पुत्री उलूपी ने उनके प्रति आसक्‍त हो पानी के भीतर से ही महाबाहु अर्जुन को खींच लिया। नागराज कौरव्‍य के परम सुन्‍दर भवन में पहुंचकर पाण्‍डु नन्‍दन अर्जुन ने एकाग्रचित होकर देखा, तो वहां अग्नि प्रज्‍वलित हो रही थी। उस समय कुन्‍ती पुत्र धनंजय ने निर्भीक होकर उसी अग्नि में अपना अग्निहोत्र कार्य सम्‍पन्‍न किया। इससे अग्नि देव बहुत संतुष्‍ट हुए। अग्निहोत्र का कार्य कर लेने के पश्‍चात् अर्जुन ने नागराज कन्‍या से हंसते हुए यह बात कही- ‘भीरु ! तुमने ऐसा साहस क्‍यों किया है? भाविनी ! यह कौन सा देश है? सुभगे ! तुम कौन हो? किसकीपुत्री हो ? ’उलूपी ने कहा- राजन् ! ऐरावत नाग के कुल में कौरव्‍य नामक नाग उत्‍पन्‍न हुए हैं, मैं उन्‍हीं की पुत्री नागिन हूं। मेरा नाम उलूपी है। नरश्रेष्‍ठ ! जब आप स्‍नान करने के लिये समुद्र गामिनी नदी गंगा में उतरे थे, उस समय आपको देखते ही मैं काम वेदना से मूर्छित हो गयी थी। निष्‍पाप कुरुनन्‍दन ! मैं आपके ही लिये कामदेव के ताप से जली जा रही हूं। मैंने आपके सिवा दूसरे को अपना हृदय अर्पण नही किया है। अत: मुझे आत्‍मदान देकर आनन्दित कीजिये। अर्जुन बोले- भद्रे ! यह मेरे बारह वर्षो तक चालू रहनेवाले ब्रह्मचर्य व्रत का समय है। धर्मराज युधिष्ठिर ने मुझे इस व्रत के पालन की आज्ञा दी है। अत: मैं अपने वश में नहीं हूं।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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