महाभारत आदि पर्व अध्याय 228 श्लोक 1-17

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अष्टविंशत्यधिकद्विशततम (228) अध्‍याय: आदि पर्व (मयदर्शन पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: सप्तविंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

शांर्गकोपाख्यान - मन्दपाल मुनि के द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति और उन्हें बचाने के लिये मुनि का अग्निदेव की स्तुति करना

जनमेजय ने पूछा - ब्रह्मन् ! इस प्रकार सारे वन के जलाये जाने पर भी अग्निदेव ने उन चारों शांर्गकों को क्यों दग्ध नहीं किया ? यह मुझे बताइये। विप्रवर ! आपने अश्वसेन नाग तथा मय दानव के न जलने का कारण तो बताया है; परंतु शांर्गकों के दग्ध न होने का कारण नहीं कहा है। ब्रहान् ! उस भयानक अग्निकाण्ड में उन शांर्गकों का सकुशल बच जाना, यह बडे़ आश्चर्य की बात है। कृप्या बताइये, उनका नाश कैसे नहीं हुआ ?

वैशम्पायन जी कहते हैं - शत्रुदमन जनमेजय ! वैसे भयंकर अग्निकाण्ड में भी अग्निदेव ने जिस कारण से शांर्गकों को दग्ध नहीं किया और जिस प्रकार वह घटित हुई, वह सब मैं तुम्हें बताता हूँ, सुनो। मन्दपाल नाम से विख्यात एक विद्वान महर्षि थे। वे धर्मज्ञों में श्रेष्ठ और कठोर व्रत का पालन करने वाले तपस्वी थे। राजन् ! वे ऊध्र्वरेता मुनियों के मार्ग (ब्रह्मचर्य) का आश्रय लेकर सदा वेदों के स्वाध्याय में संलग्न और धर्मपालन में तत्पर रहते थे। उन्होनें सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में कर लिया था और वे सदा तपस्या में ही लगे रहते थे। भारत ! वे अपनी तपस्या को पूरी करके शरीर का त्याग करने पर पितृलोक में गये; किंतु वहाँ उन्हें अपने तप एवं सत्कर्मों का फल नहीं मिला। उन्होनें तपस्या द्वारा वश में किये हुए लोकों को भी निष्फल देखकर धर्मराज के पास बैठे हुए देवताओं से पूछा। मछनपाल बोले - देवताओं ! मेरी तपस्या के द्वारा प्राप्त हुए ये लोक बंद क्यों हैं ? (उपभोग के साधनों से शून्य क्यों हैं ?) मैने वहाँ कौन सा सत्कर्म नहीं किया है, जिसका फल मुझे इस रूप में मिला है। जिसके लिये इस तपस्या का फल ढका हुआ है, मैं उस लोक में जाकर वह कर्म करूँगा। आप लोग मुझसे उसका बताइये।

देवताओं ने कहा - ब्रह्मन् ! मनुष्य जिस ऋण से ऋणी होकर जन्म लेते हैं, उसे सुनिये। यज्ञकर्म, ब्रह्मचर्य पालन और प्रजा की उत्पत्ति - इन तीनों के लिये सभी मनुष्यों पर ऋण रहता है, इसमें संशय नहीं है। यज्ञ, तपस्या और वेदाध्ययन के द्वारा वह सारा ऋण दूर किया जाता है। आप तपस्वी और यज्ञकर्ता तो हैं ही, आप के कोई संतान नहीं है। अतः संतान के लिये ही आपके ये लोक ढ़के हुए हैं। इसलिये पहले संतान उत्पन्न कीजिये, फिर अपने प्रचुर पुण्यलोकों का फल भोगियेगा। श्रुतिका कथन है कि पुत्र ‘पुत्’ नामक नरक से पिता का उद्धार करता है। अतः विप्रवर ! आप अपनी वंश परम्परा की अविच्छिन्न बनाने का प्रयत्न कीजिये।

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय ! देवताओं का वह वचन सुनकर मन्दपाल ने बहुत सोचा विचारा कि कहाँ जाने से मुझे शीघ्र संतान होगी। यह सोचते हुए वे अधिक बच्चे देने वाले पक्षियों के यहाँ गये और शांर्गिक होकर जरिता नाम वाली शांर्गिका से सम्बन्ध स्थापित किया। जरिता के गर्भ से चार ब्रह्मवादी पुत्रों को मुनि ने जन्म दिया। अंडे में पडे़ हुए उन बच्चों को माता सहित वहीं छोड़कर वे मुनि वन में लपिता के पास चले गये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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