महाभारत आदि पर्व अध्याय 69 श्लोक 1-18

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एकोनसप्ततितम (69) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: एकोनसप्ततितम अध्‍याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

दुष्यन्त का शिकार के लिये वन में जाना और विविध हिंसक वन-जन्तुओं का वध करना

जनमेजय बोले- ब्रह्मन् ! मैं परम बुद्विमान् भरत की उत्पत्ति और चरित्र को तथा शकुन्तला की उत्पत्ति के प्रसंग को भी यथार्थ रूप से सुनना चाहता हूं। भगवन् ! वीरवर दुष्यन्त ने शकुन्तला को कैसे प्राप्त किया? मैं पूरूषसिंह दुष्यन्त के उस चरित्र को विस्तार पर्वूक सुनना चाहता हूं। तत्वज्ञ मुने ! आप बुद्विमानों में श्रेष्ठ हैं। अतः ये सब बातें बताइये। वैशम्पायनजी ने कहा- एक समय की बात है, महाबाहु राजा दुष्यन्त बहुत-से सैनिक और सवारियों को साथ लिये सैकड़ों हाथी-घोड़ों से घिरकर परम सुन्दर चतुरगिणी सेना के साथ एक गहन वन की ओर चले। जब राजा ने यात्रा की, उस समय खड्ग, शक्ति, गदा, मुसल, प्राप्त और तोमर हाथ में लिये सैकड़ों योद्वा उन्हें घेरे हुए थे। महाराज दुष्यन्त के यात्रा करते समय योद्वाओं ने सिंहनाद, शंक और नगाड़ों की आवाज, रथ के पहियों की घरघराहट, बड़े-बड़े गजराजाओं की चिग्घाड़, घोड़ों की हिनहिनाहट, नाना प्रकार के आयुध तथा भांति-भांति के वेश धारण करने वाले योद्वाओं द्वारा की हुई गर्जना और ताल ठोंकने की आवाजों से चारों ओर भरी कोलाहल मच गया था। महल के श्रेष्ठ शिखर पर बैठी हुई स्त्रियां उत्तम राजोचित शोभा से सम्पन्न शूरवीर दुष्यन्त को देख रही थीं। वे अपने यश को बढ़ाने वाले, इद्र के समान पराक्रमी और शत्रुओं का नाश करने वाले थे। शत्रुरूपी मतवाले हाथी को रोकने के लिये उनमें सिंह के समान शक्ति थी। वहां देखती हुई स्त्रियों ने उन्हें वज्रपाणि इन्द्र के समान समझा और आपस में वे इस प्रकार बातें करने लगीं - ‘सखियो ! देखो तो सही, ये ही वे पुरूषसिंह महाराज दुष्यन्त हैं, जो संग्राम भूमि में वसुओं के समान पराक्रम दिखाते हैं, जिनके बाहुवल में पड़कर शत्रुओं का अस्तित्व मिट जाता है’। ऐसी वातें करती हुई वे स्त्रियां बड़े प्रेम से महाराज दुष्यन्त की स्तुति करतीं और उनके मस्तक पर फूलों की वर्षा करती थीं। यत्र-तत्र खड़े हुए श्रेष्ठ ब्राह्मण सब ओर उनकी स्तुति-प्रशंसा करते थे। इस प्रकार महाराज वन में हिंसक पशुओं का शिकार खेलने के लिये वड़ी प्रसन्नता के साथ नगर से बाहर लिकले । वे देवराज इन्द्र के सामन पराक्रमी थे। मतबाले हाथी की पीठ पर बैठकर यात्रा करने वाले उन महाराज दुष्यन्त के पीछे-पीछे ब्राहम्ण, क्षत्रिय, वैश्‍य और शूद्र सभी वर्णों के लोग गये और सब आशीर्वाद एवं विजय सूचक वचनों द्वारा उनके अभ्युदय की कामना करते हुए उनकी ओर देखते रहे। नगर और जनपद् के लोग बहुत दूर तक उनके पीछे-पीछे गये। फिर महाराज की आज्ञा होने पर लौट आये। उनका रथ गरूड के समान वेगशाली था। उसके द्वारा यात्रा करने वाले नरेश ने घरघराहट की आवाज से पृथ्वी और आकाश को गुंजा दिया। जाते-जाते बुद्विमान् दुष्यन्त ने एक नन्दन वन के समान मनोहर वन देखा, जो बेल, आक, खैर, कैथ और घव (वाकली) आदि वृक्षों से भर-पूर था। पर्वत की चोटी से गिरे हुए बहुत-से शिलाखण्ड वहां इधर-उधर पड़े थे। ऊंची-नीची भूमि के कारण वह वन बड़ा दुर्गम जान पड़ता था। अनेक योजन तक फैले हुए एन वन में कही जल या मनुष्य का पता नहीं चलता था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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