महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-12
द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)
नरश्रेष्ठ ! जो स्त्री मन, वाणी और क्रिया से पर पुरुष के साथ समागम करती है, उसकी योनि गर्भाधान के योग्य नहीं होती। दूषित योनि से उत्पन्न हुए मनुष्य यज्ञ, श्राद्ध, दान, भोजन, र्वातानाप, शयन तथा सम्बन्ध आदि में सम्मिलित करने योग्य नहीं होते। बिना ब्याही कन्या उत्पन्न, ब्याह के समय गर्भवती कन्या से उत्पन्न, पति की जीवितावस्था में व्यभिचार से उत्पन्न, पति के मर जाने पर पर–पुरुष से उत्पन्न, सन्यासी के वीर्य से उत्पन्न तथा पतित मनुष्य से उत्पन्न – ये छ: प्रकार के चाण्डाल ब्राह्मण होते हैं, जो चाण्डाल से भी नीच हैं। जो जहां – तहा जिस किसी स्त्री से अथवा शूद्र जाति की स्त्री से भी समागम कर लेता है, वह पापात्मा स्वेच्छाचारी कहलाता है। उसका बीज अशुभ होता है। वह अशुद्ध वीर्य किसी शुद्ध योनि वाली स्त्री के योग्य नहीं होता, उसके सम्पर्क से कुत्ते के चाटे हुए हविष्य की तरह शुद्ध योनि भी दूषित हो जाती है। वीर्य को आत्मा बताया गया है। वह सबसे श्रेष्ठ देवता है । इसलिये सब प्रकार का प्रयत्न करके अपने वीर्य की रक्षा करनी चाहिये। मनुष्य ब्रह्मचर्य के पालन से आयु, तेज, बल, वीर्य, बुद्धि, लक्ष्मी, महान् यश, पुण्य और मेरे प्रेम को प्राप्त करता है। जो ग्रहस्थ – आश्रम में स्थित होकर अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए पंच यज्ञों के अनुष्ठान में तत्पर रहते हैं, वे पृथ्वीतल पर धर्म की स्थापना करते हैं। जो प्रतिदिन सबेरे और शाम को विधिवत् संध्योपासना करते हैं, वे वेदमयी नौका का सहारा लेकर इस संसार – समुद्र से स्वयं भी तर जाते हैं और दूसरों को भी तार देते हें। जो ब्राह्मण सबको पवित्र बनाने वाली वेदमाता गायत्री देवी का जप करता है, वह समुद्रपर्यन्त पृथ्वी का दान लेने पर भी प्रति ग्रह से दुखी नहीं होता। तथा सूर्य आदि ग्रहों में से जो उसके लिये अशुभ स्थान में रहकर अनिष्टकारी होते हैं, वे भी गायत्री – जप के प्रभाव से शान्त, शुभ और कल्याणकारी फल देने वाले हो जाते हें। जहां कहीं क्रूर कर्म करने वाले भयंकर विशालकाय पिशाच रहते हैं, वहां जाने पर भी वे उस ब्राह्मण का अनिष्ट नहीं कर सकते। वैदिक व्रतों का आचरण करने वाले पुरुष पृथ्वी पर दूसरों को पवित्र करने वाले होते हैं । राजन् ! चारों वेदों में वह गायत्री श्रेष्ठ है। युधिष्ठिर ! जो ब्राह्मण न तो ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं और न वेदाध्ययन करते हैं, जो बुरे फल वाले कर्मों का आश्रय लेते हैं, वे नाम मात्र के ब्राह्मण भी गायत्री के जप से पूज्य हो जाते हैं । फिर जो ब्राह्मण प्रात: - सांय दोनों समय संध्या – वंदन करते हैं, उनके लिये तो कहना ही क्या ? प्रतापति मुनि का कहना है कि – ‘शील, स्वाध्याय, दान, शौच कोमलता और सरलता – ये सद्गुण ब्राह्मण के लिये वेद से भी बढ़कर हैं।‘ जो ब्राह्मण ‘भूर्भुव: स्व:’ इन व्याहृतियों के साथ गायत्री का जप करता है, वेद के स्वाध्याय में संलग्न रहता है और अपनी ही स्त्री से प्रेम करता है, वही जितेन्द्रीय, वही विद्वान् और वही इस भूमण्डल का देवता है। पुरुषसिंह ! जो श्रेष्ठ ब्राह्मण प्रतिदिन संध्योपासन करते हैं, वे नि:संदेह ब्रह्मलोक को प्राप्त होते हैं।
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