महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-39
द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)
युधिष्ठिर ने पूछा – भगवन् ! मनुष्य ब्राह्मण की हिंसा किये बिना ही ब्रह्महत्या के पाप से कैसे लिप्त हो जाता है, इस विषय को पूर्णतया ठीक – ठीक बताने की कृपा कीजिये। श्रीभगवान् ने कहा – राजन् ! जो जीविका रहित ब्राह्मण को स्वयं ही भिक्षा देने के लिये बुलाकर पीछे इनकार कर देता है, उसे ब्रह्म हत्यारा कहते हैं। भरतनन्दन ! जो दुष्ट बुद्धिवाला पुरुष मध्यस्थ और और ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण की जीविका छीन लेता है, उसे भी ब्रह्मघाती कहते हैं। जो क्रोध में भरकर किसी आश्रम, घर, गांव अथवा नगर में आग देता है, उसे भी ब्रह्मघाती कहते हैं। पृथ्वीनाथ ! प्यास से तड़पते हुए गो समुदाय को जो पानी के निकट पहुंचने में बाधा डालता है, उसे भी ब्रह्मघाती कहते हैं। जो परम्परागत वैदिक श्रुतियों और ऋषिप्रणीत सच्छास्त्रों पर बिना समझे – बूझे दोषारोपण करता है, उसे भी ब्रह्महत्यारा कहते हैं। जो अन्धे, पंगु और गूंगे मनुष्य का सर्वस्व हरण कर लेता है, उसे भी ब्रह्मघाती कहते हैं। जो मूर्खतावाश गुरु को ‘तू’ कहकर पुकारता है, हुंकार के द्वारा उनका तिरस्कार करता है तथा उनकी आज्ञा का उल्लंघन करके मनमाना बर्ताव करता है, उसे भी ब्रह्मघाती कहते हैं। जो दीन मनुष्य किंचित प्राप्त वस्तुओं को ही अपने लिये सार-सर्वस्व समझता है और उनकेनाश से जिसकी दुर्दशा हो जाती है, ऐसे मनुष्य का जो पुरुष सर्वस्व छीन लेता है, उसे भी ब्रह्मघाती कहते हैं। युधिष्ठिर ने पूछा – भगवन ! जो दान सब दानों में श्रेष्ठ माना गया हो, उसको बतलाइये । सुरश्रेष्ठ ! जिन ब्राह्मणों का अन्न खाने योग्य न हो, उनका परिचय दीजिये। श्रीभगवान ने कहा – राजन् ! ब्रह्मा आदि सभी देवता अन्न की प्रशंसा करते हैं, अत: अन्न के समान दान न कोई हुआ है न होगा। क्योंकि अन्न ही इस जगत में बल देने वाला है तथा अन्न के ही आधार पर प्राण टिके रहते हैं । राजन् ! अब मैं उन लोगों का परिचय दे रहा हूं, जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य नहीं माना गया है, ध्यान देकर सुनो। यज्ञ में दीक्षित, कदर्य, क्रोधी, शठ, शापग्रस्त, नपुंसक, भोजन में भेद करने वाले, चिकत्सक, दूत, उच्छिष्टभोजी, वर्णसंकर तथा अशौच में पड़े हुए मनुष्य का अन्न, शूद्र की जूठन, शत्रु का अन्न और जो पतित का अन्न माना गया है, उसे भी नहीं खाना चाहिये। इसी प्रकार चुगलखोर, यज्ञ का फल बेचने वाले, नट और कपड़ा बुनने वाले जुलाहे का अन्न एवं कृतघ्न का अन्न, अम्बष्ठ, निषाद, रंगभूमि में नाटक खेलने वाले, सुनार, वीणा बजाकर जीने वाले, हथियार बेचने वाले, सूत शराब बेचने वाल, वैद्य, धोबी, स्त्री के वश में रहने वाले, क्रूर और भैंस चराने वाले का अन्न भी अग्राहा माना गया है । जिनके यहां मरणाशौच के दस दिन न बीते हों, उनका तथा वैश्याओं का अन्न नहीं खाना चाहिये। राजा का अन्न तेज का, शूद्र का अन्न ब्राह्मणत्व का, सुनार का अन्न आयु का और चमार का अन्न सुयश का नाया करता है। किसी समूह का और वेश्याओं का अन्न भी लोकनिन्दित माना गया है । वैद्य का अन्न पीब तथा व्याभिचारिणी के पति का अन्न वीर्य के समान एवं एवं व्याजखोर का अन्न विष्ठा के समान मानागया है, इसलिये उसका त्याग कर देना चाहिये ।
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