महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-46

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द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)

महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-46 का हिन्दी अनुवाद

शूद्र की सेवा करने वाले ब्राह्मण को खाने के लिये विशेषत: जमीन पर ही अन्‍न डाल देना चाहिये; क्‍योंकि वह कुत्‍ते और गीदड़ के ही समान होता है। जो ब्राह्मण मूर्खतावश मरे हुए शूद्र के शव के पीछे-पीछे श्‍मशान भूमि में जाता है, उसको तीन रात का अशौच लगता है। तीन रात पूर्ण होन पर किसी समुद्र में मिलने वाली नदी के भीतर स्‍नान करके सौ बार प्राणायाम करे और घी पीवे तो वह शुद्ध होता है। जो श्रेष्‍ठ द्विज किसी अनाथ ब्राह्मण के शव को श्‍मशान में ले जाते हैं, उन्‍हें पग-पग पर अश्‍वमेध-यज्ञ का फल मिलता है। उन शुभ कर्म करने वालों को किसी प्रकार का अशुभ या पाप नहीं लगता। वे जल में स्‍नान करने मात्र से तत्‍काल शुद्ध हो जाते हैं। निवृत्‍ति मार्ग परायण ब्राह्मण को शूद्र के घर में दूध या दही भी नहीं खाना चाहिये। उसे भी शूद्रान्‍न ही समझना चाहिये। अत्‍यन्‍त भूखे होने के कारण अन्‍न की इच्‍छा वाले ब्राह्मणों के भोजन में जो मनुष्‍य विघ्‍न डालता है, उससे बढ़कर पापी दूसरा कोई नहीं है। राजन् ! यदि ब्राह्मण शील और सदाचार से रहित हो जाय तो छहों अंगों सहित सम्‍पूर्ण वेद, सांख्‍य, पुराण और उत्‍तम कुल का जन्‍म- ये सब मिलकर भी उसे सद्गति नहीं दे सकते। पाण्‍डुनन्‍दन ! ग्रहण के समय, विषुव योग में, अयन समाप्‍त होने पर, पितृकर्म (श्राद्ध आदि) में, मघा-नक्षत्र में, अपने यहां पुत्र का जन्‍म होने पर तथा गया में पिण्‍डदान करते समय जो दान दिया जाता है, वह एक हजार स्‍वर्ण मुद्रा के दान देने के समान होता है। वैशाख मास की शुक्‍ला तृतीया, कार्तिक शुक्‍ल पक्ष की तृतीया, भाद्रपद मास की कृष्‍णा त्रयोदशी, माघ की अमावस्‍या, चन्‍द्रमा और सूर्य का ग्रहण तथा उत्‍तरायण और दक्षिणायन के प्रारम्‍भिक दिन- ये श्राद्ध के उत्‍तम काल हैं । इन दिनों में मनुष्‍य पवित्र चित्‍त होकर यदि पितरों के लिये तिलमिश्रित जल का भी दान कर दे तो उसके द्वारा एक हजार वर्ष तक श्राद्ध किया हुआ हो जाता है। यह रहस्‍य स्‍वयं पितरों का बतलाया हुआ है। जो मनुष्‍य स्‍नेह या भय के कारण अथवा धन पाने की इच्‍छा से एक पंक्‍ति में बैठे हुए लोगों को भोजन परोसने में भेद करता है, उसे विद्वान पुरुष क्रूर, दुराचारी, अजितात्‍मा और ब्रह्महत्‍यारा बतलाते हैं। शत्रुसूदन ! जिनके पास धन का भण्‍डार भरा हुआ है और जो परलोक के विषय में कुछ भी न जानने के कारण सदा भोग-विलास में ही रम रहे हैं, वे केवल दैहिक सुख में ही आसक्‍त हैं । अत: उनके लिये इस लोक का ही सुख सुलभ है; पारलौकिक सुख तो उन्‍हें कभी नहीं मिलता। जो विषयों की आसक्‍ति से मुक्‍त होकर तपस्‍या में संलग्‍न रहते हों, जिन्‍होंने नित्‍य स्‍वाध्‍याय करते हुए अपने शरीर को दुर्बल कर दिया हो, जो इन्‍द्रियों को वश में रखते हों और समस्‍त प्राणियों के हित-साधन में लगे रहते हों, उनके लिए इस लोक का भी सुख सुलभ है और परलोक का भी। परंतु जो मूर्ख न विद्या पढ़ते हैं, न तप करते हैं, न दान देते हैं, न शास्‍त्रानुसार संतानोत्‍पादन का प्रयत्‍न करते हैं और न अन्‍य सुख-भागों का ही अनुभव कर पाते हैं, उनके लिये न इस लोक में सुख है न परलोक में।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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